सुमन मञ्जरी | Suman Manjari

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Suman Manjari by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२५ परन्तु आजकल कविने प्रचारक किए छिछली तात्कालिक और उत्तेजनापूर्ण कृतियेसि मुँह मोड लिया है, किन्तु प्राराभ्मिक युगकी अदम्य अनुभूति उसपर गहरा रंग छोड़ गई है ओर कवि अपनी ओजपूर्ण कल्पनामय शब्दावलीद्वारा स्वतत्रताका स्वागत करने बढा है। महात्मा गॉधीका दडी-प्रयाण ” अब इतिहासकी एक घटना हो गई है । इस अमर व्यक्तिकी जीवनीका एक पृष अपनी कवितामे वर्णित कर कवबिने अपनी वाणीको पवित्र किया है। अहिंसाके उस अवतारके आदरशोकी व्याख्या करते करते कवि चोंक पड़ता है और सुदूर पूर्वमें उसी अहिंसावादके सर्वप्रथम आचार्य भगवान्‌ बुद्धके अनुयाय्रियोकी हिंसा- लीलाका दृश्य उसकी आँखेंकि सामने नाचने लगता है | अंतर्मं जब पाठक शधाईकी उस मृत्यु पूर्णं वाभत्स शान्तिकी ओर अन्तिम दृष्टि डाछकर एक गहर निःश्वास लेता है ओर इस “ सुमनाजलि ` को एक ओर रख देता है तब भी उसकी ओषोके सामने मागका वह प्रचण्ड स्वरूप बड़ी देरतक घूमता रहता है । अब अधिक नहीं । हम भी अव्र पाठकोकी शान्तिको अधिक भग करना नहीं चाहते । अनूपजीकी मानसिक एष्ठ-भूमि, उनकी काव्य-धारा एवं कल्पना-प्वाहकी प्रगतिका कुछ निर्देश करना मात्र हमारा उद्देश्य था ओर हमने जितने पद उदा- हरणार्थ दिये हैँ उनको ही हम प्रन्थमे सर्वश्रेष्ठ मानते हैं यह बात नहीं है। वे तो इस पुस्तकमे प्रकाशित कई सुंदर उक्तियोमेंसें कुछ हैं । अनूपजीके काव्यके विशेष गुण-दोषोकी विवेचनाका कार्य हम साहिथिक समालोच्कों और सहृदय पाठकॉपर ही छोड्ते हैं। व्यवहास्मे अपनी सारी ऊपरी नम्रताकों प्रदर्शित करते हुए भी प्रत्येक कवि अपने हृदयम यदी विश्वास रखता है कि उसकी कृतिरयो विदव-काव्यमे यदिन भी स्थान पा सकेगी तो कमसे कम अमर अवद्य होवे । यदि अनूपजीके हृदयम एेसा विश्वाच हो तो स्वाभाविक दी होगा, परन्तु यह तो समय दी बता सकेगा कि उनकी कितनी ओर कोन-सी कतिर्यो स्थायी साहित्यकी अमर निधि बनेगी | रघुवीर-निवास, सीतामऊ रघुवीरसिंह १८-९- १९३९ रघुनाथसिंहः




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