मानसरोवर | Mansarowar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछुम १७ मेरे स्वामी की प्रेमिका हो, मुझे अपने चरणो में शरण दो । मै तुम्हारे लिए: फूलों की सेज विछाऊँगो, त॒म्दारी माँग मोतियों से मरूँगी, तुम्हारी एड़ियो में महावर रचाऊगी--यही मेरे जीवन की साधना होगी | यह न सममना कि में जलूँगी या कुट्ढें गी । जलन तव होती दे, जब कोई मुझसे मेरी वस्तु छीन रहा हो | जिस वस्तु को अपना समझने का मुमे कभी सोमाग्य न हुआ, उसके लिए, मुके जलन क्यों हो ! श्रमी वदत कु लिखना था; लेकिन डाक्टर साइव आ गये हं । वेचारा हुदय-दाह को ष्टी° वी°' समक रदा ह । दुःख की सतायी हुई, -कुछुम इन दोनो पन्ना ने मेरे बैये का प्याला भर दिया । में वहुत दी आवेशहीन आदमी हूँ । भावुकता मुझे छू भी नहीं गयी । अधिकाश कलाविदों की भोंति में भी शब्दों में आत्दोलित नही होता । क्‍या वस्तु दिल से निकलती ई, क्या ' बस्तु फेवल मर्म को स्पर्श करने के लिए. लिखी गई है यह भेद वहुधा मेरे চি साहित्यिक आनन्द में वाधक हो जाता है; लेकिन इन पत्रों ने मुफे आपे से वाहर कर दिया | एक स्थान पर तो सचमुच मेरी आँखें भर आयी । यह मावना कितनी वेदनापूर्ण थी कि वही वालिका, जिस पर माता-पिता प्राण छिड़कते रहते थे, विवा होते ही इतनी विपदग्नस्त हो जाय ! विवाह क्या हुआ, मानो उसकी चिता बनी, या उसकी मीत का परवाना लिखा गया । इसमें सन्देद नहीं कि ऐसी वैवा- टिक दुश्ंठनाएँ कम होती हैं; लेकिन समाज की वर्तमान दशा में उनकी सम्मा- चना वनी रदती ह । जव तक स्रो-पुरुष के अ्रधिकार समान न होंगे, ऐसे आवात नित्य হীন रहेंगे । दुवंल को सताना कदाचित्‌ प्राणियों का स्वभाव है। काठने- वाले कुत्ता से लोग दूर भागते ई, सीषे कुत्ते पर वालबृन्द विनोद के लिए, पत्थर फेकते ই । तुम्दारे दो नोकर एक दी श्रण के हो, उनमें कभी झगड़ा न होगा; लेकिन आज उनमें से एक को अकसर ओर दूसरे को उनका मातदत बना दो, पिर देखो, अफसर साएवं अ्रपने मातदत पर कितना रोव जमाते हैं ভুল दाम्पत्य की नींव अ्विकार-सान्य ही पर रखी जा सकनी है। इस वैपम्य में प्रेम का निवास हो सकता है, मुझे तो इसमें सन्देद हे। हम श्राज जिसे জী-যুহদ में प्रेम श्र




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