सरल जैन धर्म [पहला भाग ] | Saral Jain Dharm [Part 1]

Saral Jain Dharm [Part 1] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १६ ] तुम जगभूषण दृषणवियुक्रत । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ४ अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप । परमात्म परम पावन अनूप | शुभअशभविभाव अभाष कीन । स्वाभाविक परिणतिमय अछीत अष्टादश दोष विमुक्त घीर | स्वचतुष्टयमय राजत गम्भीर । मुनिगणधरादि सेवत महत । नव केवल-लब्धि-रमा धरंत ॥६॥ तुम शासन सेय अमेय जीव | शिव गये जाहि जहे सदीव । भव सागरमें दुख छार वारि। तारन को और न आप टारि 1৩॥ यह বি নিজ दुख-गद्‌-हरण काज । तुमही निमित्तकारण इलाज जाने, तारतँ मे शरण श्राय । उचरों निज दुख जो विरलदहाय ॥५८॥ में श्रम्यो अपनपो विसरि आप | अपनाये विधि-फल्न पुण्य पाप । निजको परको करवा पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ॥६॥ आकुलित भयो अज्ञान घारि।। ज्यों सृग झगतृष्णा जान बारि। तन परिणतिमें आपो चितार । कबहूं न अनुभवों स्वपद सार ॥१० तुमको जिन जाने जो कलेश । पाये सा तुम जानत जिनेश | पशु नारक नरसर गति मंकार। भव घरिधरि मय्यो अनन्व बार११ अब काल-लब्धि-बलते दयाल | तुम दरशन पाय भयो खुशाल। मन शान्तभयो मिटि सकल द्व'द । चारूयो स्वातमरस दुख-निरकंद १२ तार्ते अब ऐसी करहु नाथ | बिछुरें न कभी तुब चरण साथ | तुम गुणगणको नर छव देब । जगतारनको तृव विरददब ॥१३॥ , श्मातमके अहित विषय कषाय । इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ आपमें आप जीन । स्रो करो द्वीउ' ज्यों निजाघीन ॥१४॥ मेरे न चाह कछु और इश | रत्नत्रय-निधि दोजे मुनीश । मुझ का रजके कारण सु आप। शिव करहु हरहु सम सोह-ताप १५ शशि शान्तिकरन तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तम कुशल देव ।




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