श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण अरण्यकाण्ड | Shreemadvalmikiya Ramayan Arnyakaand
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about चंद्रशेखर शास्त्री - Chandrashekhar Sastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)& अरणयकाणडम
हतोऽहं पुरुषव्याघ्र शक्रतुल्यवलेन वे । मया तु पूर्व खं मोहान्न ब्ञातः पुरूषपभ ॥१५॥
कोसट्या सुप्रजास्तात रामस्त्वं विदितो मया । वेदेही च महाभागा लक्षणश्च पहायशाः ॥१५॥
श्रमिशापादह घोरं प्रविष्टो राक्षमीं तनुम् । तुम्बुरनमिगन्धवंः शपो वेभ्रवशोन दहि ॥१६॥
प्रसाद्यमानस्य मया सोऽत्रवीन्यां महायशाः । यदा दाशरथी रामस्त्वां वधिष्यति संयुगे ६१७
तदा प्रकृतिमापन्नो मवान्स्वर्मे गमिष्यति । अनुपस्थीयमानो मां स कुद्धो व्याहार ह ॥।१८॥
इति वैश्रवणो राजा रम्भासक्तमुषाच ह । तव परमादान्मुक्तोऽदमभिशापास्छुदारुणात्॥१६॥
भवन स्वे गमिष्यामि स्वस्ति ब्रोऽस्त॒ परतप । इतो बसति धर्पास्मा शरभङ्कः प्रतापवान् ॥२०॥
ग्रध्यपयोजने ताः पहपिः सूयसंन्निमः । तेक्षिपममिगच् चंसतेभ्रयोऽभिधास्यति॥२१॥
श्रद्द चापि मां राम निन्निप्य कुशली व्रज । रन्नसां गतसच्छानामष धमः मनातनः ॥२२॥
वट ये निधीयन्ते तेषां लोकाः सनातनाः 1 एवमुक्त्वा तु काङ्कस्स्यं विराधः शरपीडितः॥२३॥
वभूव स्वगसंभपो न्यस्तदेदो महाबलः । तच्छा राघवो वाक्यं लक्ष्मणां व्यादिदेश ह ॥२४॥
कुञ्जरस्येव रोद्रस्य राक्तसस्यास्य लक्ष्पग॒ः । बनेऽस्मिन्घुपदाञ्ण्श्चः खन्यतां रोद्रकमण्ः॥२५॥
इत्युक्तवा लकष्मगां रापः पद्रः खन्यतामिति । तस्थौ विराघमाक्रम्य कण्ठे पादेन वीयवान्॥२६॥
ततः खनित्रमादाय लक्ष्मणः स्वभ्रमुत्तमम् । ज्रखनत्पान्वतस्तस्य विराधस्य मद्यसमनः ॥२७॥
समान पराक्रमचाले, आपने मेरा वध क्रिया. मूखंनावश पहले में आपके न जान सका ॥ १७ ॥
तात, आपसे कीसल्या श्रेष्पपुत्रक्ी माता हुई है, में जान गया आप रामचन्द्र हे, ये महाभागा
जानकी हैं ओर ये महायशस्वी लक्ष्मण हैं ॥ १५॥ शापके कारण मेने यह राक्तसो शरीर पाथा
है। में टुम्बरु नामका गन्धव हैँ ओर कुबेरने सुझभे शाप दिया हैं ॥ १६॥ जब मेन उनका प्रसन्न
किया तब यशस्त्री कृबरने मुझले कहा कि जब दशरथपुत्र रामचन्द्र रणमें तुम्हारा वध
करेंगे ॥ 7७॥ तब तुम अपने पहलके स्वरूपका पाकर स्वगंम आओगे। समयपर उनकी
सेवामें उपस्थित न हानेके कारण क्रोध करके उन्होंने मुझसे वैसा कहा था ॥ श८॥ रम्भा
नामकी अप्सरामें में आसक्त था, इस कारण कुवेरने मुझे शाप दिया था। आज आपकी
कृपास में उस भयानक शापले मुक्त हुआ ॥ १६॥ अब में अपने लेोककेा जाता हूँ। परन्तप,
पका कस्याणहा। इधर प्रतापी धर्मात्मा शरभड़् ऋषि रहते हैं ॥ २०॥ यहाँसे डंढ़ याोजन
पर उनका स्थान है, वे सूर्यके समान तेजस्वी हैं, शीघ्रही श्राप उन महर्पिके पास जाँय, वे आंप-
का कल्याण करंगे ॥ २१॥ गढ़ेमे मेरे शरीरकेा तेोपकर आप कुशलपूत्रक यहाँस जाएँ, क्योंकि
मरनेपर राद्वसेंके लिए यही खनातन धर्म हे॥ २२॥ जा राक्षस गढ़ेम॑ गाड़े जाते है, उन्हें
श्रेष्ठ लाक प्राप्त हाने हैं । शरपीडित मद्दावली विराधने रामचन्द्रसे ऐसा कहकर ॥ २३ ॥
रात्तस शरीर छोड़कर स्व प्राप्त किया । उसके वचन सुनकर रामचन्ट्रने लक्ष्मणका आज्ञा
दी ॥ २४॥ भयानक हाथीके समान भयदायी राक्तसके लिए इस वनम पक बड़ा गा
বাই ॥ २५ ॥ लकष्मणकेा गढ़ा खेदनेकी चाज्ञा देकर रामचन्द्र विराध्का गल्ला पेरसे दबा-
कर खड़े रहे ॥ २६॥ लच्मणने परक खनती लेकर महात्मा विराधके बगलमे दी एक उत्तम गढ़ा
२
User Reviews
No Reviews | Add Yours...