षटखंडागम - खंड 9 | The Satkhandagama Vol-ix

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
The Satkhandagama Vol-ix by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हीरालाल जैन - Heeralal Jain

Add Infomation AboutHeeralal Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
विषय-परिचिय ই 8 गणनकृति नोकृति, अवक्तव्यकृति और कृतिके भदसे तीन भेद रूप अथवा कृति- गत संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेदोंसे अनेक प्रकार भी है । इनसे ५ एक” संख्या नोकृति, दो ! संख्या अवक्तव्यकृति ओर * तीन ? का आदि लेकर संख्यात असंख्यात व अनन्त तक संख्या कृति कहवछाती दे | संकलना, बगे, वगीवगे, घन व घनाधन राशियेकी उत्पत्तिमे निमित्त- अत गुणकार, कलासवर्ण तक भेदप्रकीणैक जाति, त्रराशिक व पचरशिक इव्यादि सव्र धनगणित ই | ল্ফুক্ষভলা व मागहार्‌ आदि ऋणगाणित कहलाते हैं | गतिनिव्वत्तिगणित और कुट्टिकार आदि अन-कणगणितके अन्तरगत दै । यषां कृति, नोकृति और अवक्तग्यकृतिके उदाहरणाय ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम, ये चार अनुयोगद्वार कह्दे गये हैँ। इनमें संचयानुगमकी अरूपणा सत्‌-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तारपूषेक की गई ই। ५ लोक, वेद अथवा समर्यम शब्दसन्दभ रूप अक्षरकाव्यादिकोके द्वारा जो प्रन्थ- रचना की जाती है वह प्रन्थकृति कराती है | इसके नाम, स्थापना, द्वव्य व भावके मेदसे चार भद करके उनकी पृथक्‌ प्रथक्‌ प्ररूपणा की गः है | ६ करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृतिके भेदसे दो प्रकार है। इनमें ओदारिकादि शारीर रूप मूलकरणके पांच भेद द्वोनेसते उसकी कृत रूप मूछकरणकृति भी पांच प्रकार निर्दिष्ट की गईद्ढे। ओदारिकशरीरमूछकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति और आद्वारकशरीरमूछकरणकृति, इनसे प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन स्वरूपसे तीन तीन प्रकार दै। किन्तु तेजस नेर कामणश्चीरमूकरणकृतिरमेसे प्रयेक संघातनते रकित देष दोभेददखूप ছাঁছু। विवक्षित शरीरके परमाणुओंका निजेराके बिना जो एक मात्र सचय हता है वह संघा- तनकृति है | यद्द यथासम्मव देव व मनुष्यादिकोंके उत्पन्न द्वोनेके प्रथम समय द्वोती ই, क्योंकि, उस सपय विवक्षित शरीरके पुदूगलस्कन्धोंका केवछ आगमन दी द्वोता है, निजेरा नहीं द्वोती । विरवाक्षत शरीर सम्बन्धी पुदूगलस्कन्धोंकी आगमनपूवेक द्वोनेवाढी निजरा संघातन-पीरे- शातनकृति कहलाती है । वह यथासम्मव देव-मनुष्यादिकोंके उत्पन्न द्वोनके द्वितीयादिक समयोंमें दोती है, क्योंकि, उस समय अभब्य राशिसे अनन्तगुणे ओर छिद्ध राशिसे अनन्तगुणे दीन जऔदारिकादि शरीर रूप पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों दी पयि जाते हैं । उक्त विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंक्री संचयके बिना दोनेवाली एक मात्र नि्जराका नाम परिशातनकृति है | यह ययासम्भत्र देव-मनुष्यादिकोंके उत्तर शरीरके उत्पन्न करनेपर होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके पुदूगलस्वल्धषोंका आगमन नही होता ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now