श्री रज्जब वाणी | Shree Rajjab Vani
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
55 MB
कुल पष्ठ :
1460
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तासां तत् জীলযালহ वोक्ष्य भानं च केशव: ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रवान्तरधीयत ॥।
नारद ने तो इसी लिए 'नारदस्तु तदप्रिताखिलाचारता तद्विस्मरणोे
परमव्याकुलतेति सूत्र के द्वारा परम व्याकुलता रूप विरह को भक्ति का
स्वरूप ही मान लिया है ।
४--भक्त भगवान् को पति या स्वामी मान कर तथा स्वयं को
कान्ता समझ कर सेवा करता है। इस प्रकार की आराधना बहुत से
भक्तों मे मिलती है । जते-
दादू पुरुष हमारा एक ह् हम नारौ बहुरङ्ध ।
जे जे जेसी ताहिसों खेलं तित हौ सङ्क ॥
नारद ने भी त्रिहूपभंगपुवेक नित्यदासनित्यकांताभजनात्मक वा
प्रेमव कार्यम । इस सत्र के द्वारा यही बात बतलाई है।
५--अभिमान का परित्याग तथा दीनतादि भावों का ग्रहण भक्ति
के लिए प्रावश्यक्र है। नारद ने 'ईश्वरस्याप्यभिमानद्वे षित्वात् देन्यप्रिय-
त्वाच्च' अभिमानदम्भादिक॑ त्याज्यम्ू इन सत्रों से ईइ्वर को अभिमान-
द्वेषी तथा दीनताप्रिय बतलाया है। भागवत में भी इसी रहस्य को
बतलाया हैः--
ब्रहान् यमनुगृहणममि तद्विश्लो विधुनोम्यहम्
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥
मकमवयोरूपविद्यदवयंधनादिभिः
यद्यस्य न भवेत् स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥
६-कामिनी व काञ्चन का परित्याग भी भक्ति के लिए आवश्यक
है जैसा कि भागवत में कहा है:--
पदापि युर्वाति भिक्षुनें स्पशेद् दारवीसपि।
स्पृशन् करोव बध्येत करिण्या अ्रंगसंगतः ॥॥
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादिषु द्रग्यषु मायारचितेषु मूढः ।
प्रलोभितात्मा हचपयोगबद्ध्या पतंगवन्नश्यति नष्टदृष्टिः ॥
नारद ने भी 'स्त्रीधननास्तिकवेरिचरित्रं न श्रवशीयम् इस सत्र के
द्वारा उपयुक्त कामिनी व काञ्चन के परित्याग को भक्ति का भ्रावर्यक
तत्त्व बतलाया है।
७--बाद्य लौकिक मर्यादाभ्रोंका परित्याग भी भक्ति की उन्नत
दशाओं में स्वतः सिद्ध है। नारद ने भी 'यो लोकबन्धमन्मलयति निस्त्रे-
गुण्यो भवतति इत्यादि सूत्र के हारा इसी रहस्यका स्पष्टीकरण किया
। इसी लिए ज्ञानी को व शत्त्युत्तम भक्त को अतिवर्णाश्नमी कहा गया
। जैसे---
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