श्री रज्जब वाणी | Shree Rajjab Vani

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Shree Rajjab Vani by नारायणदास - Narayandas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तासां तत्‌ জীলযালহ वोक्ष्य भानं च केशव: । प्रशमाय प्रसादाय तत्रवान्तरधीयत ॥। नारद ने तो इसी लिए 'नारदस्तु तदप्रिताखिलाचारता तद्विस्मरणोे परमव्याकुलतेति सूत्र के द्वारा परम व्याकुलता रूप विरह को भक्ति का स्वरूप ही मान लिया है । ४--भक्त भगवान्‌ को पति या स्वामी मान कर तथा स्वयं को कान्ता समझ कर सेवा करता है। इस प्रकार की आराधना बहुत से भक्तों मे मिलती है । जते- दादू पुरुष हमारा एक ह्‌ हम नारौ बहुरङ्ध । जे जे जेसी ताहिसों खेलं तित हौ सङ्क ॥ नारद ने भी त्रिहूपभंगपुवेक नित्यदासनित्यकांताभजनात्मक वा प्रेमव कार्यम । इस सत्र के द्वारा यही बात बतलाई है। ५--अभिमान का परित्याग तथा दीनतादि भावों का ग्रहण भक्ति के लिए प्रावश्यक्र है। नारद ने 'ईश्वरस्याप्यभिमानद्वे षित्वात्‌ देन्यप्रिय- त्वाच्च' अभिमानदम्भादिक॑ त्याज्यम्‌ू इन सत्रों से ईइ्वर को अभिमान- द्वेषी तथा दीनताप्रिय बतलाया है। भागवत में भी इसी रहस्य को बतलाया हैः-- ब्रहान्‌ यमनुगृहणममि तद्विश्लो विधुनोम्यहम्‌ यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥ मकमवयोरूपविद्‌यदवयंधनादिभिः यद्यस्य न भवेत्‌ स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥ ६-कामिनी व काञ्चन का परित्याग भी भक्ति के लिए आवश्यक है जैसा कि भागवत में कहा है:-- पदापि युर्वाति भिक्षुनें स्पशेद्‌ दारवीसपि। स्पृशन्‌ करोव बध्येत करिण्या अ्रंगसंगतः ॥॥ योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादिषु द्रग्यषु मायारचितेषु मूढः । प्रलोभितात्मा हचपयोगबद्ध्या पतंगवन्नश्यति नष्टदृष्टिः ॥ नारद ने भी 'स्त्रीधननास्तिकवेरिचरित्रं न श्रवशीयम्‌ इस सत्र के द्वारा उपयुक्त कामिनी व काञ्चन के परित्याग को भक्ति का भ्रावर्यक तत्त्व बतलाया है। ७--बाद्य लौकिक मर्यादाभ्रोंका परित्याग भी भक्ति की उन्नत दशाओं में स्वतः सिद्ध है। नारद ने भी 'यो लोकबन्धमन्मलयति निस्त्रे- गुण्यो भवतति इत्यादि सूत्र के हारा इसी रहस्यका स्पष्टीकरण किया । इसी लिए ज्ञानी को व शत्त्युत्तम भक्त को अतिवर्णाश्नमी कहा गया । जैसे---




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