कालजयी सनातन धर्म | Kaljayi Sanatan Dharm

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Kaljayi Sanatan Dharm by बदरीदासजी दम्माणी - Badaridasji Dammani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जगदम्बा नहीं है ? सम्भवतः, वे जो राजा बैठे थे, वे भी देख रहे थे, कैसे मना किया गया था, क्‍यों मना किया गया था--भॉप रहे थे, समझ रहे थे कि क्यो वे लौटकर आ गये थे? किस विवेक से प्रेरित हो कर लौट आए थे? और नाम रख दिया--यह विवेक है, यह विवेकानन्द है। तब से उनका नाम पडा--विवेकानन्द। राजस्थान ने उनको यह नाम दिया-- विवेकानन्द” | यह घटना एक 1४779 7०४५ थी। नहीं तो नारी से बचते रहते। मै सन्यासी हूँ, मै नारी से बचता रहूँ। क्यो मै स्त्रियों के पास जाऊँ ? अगर यह परिवर्तन उनमे नहीं आया होता तो वे सर्वत्र जगदम्बा का दर्शन नही कर पाते। विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः। स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु 11 --श्रीदुगसिप्तशती 116 जगत्‌ मे जितनी स्त्रियो हँ वे सब जगदम्बा की ही मूर्तयो है ।' एक परिवर्तन, एक परिपाक उनके जीवन में आया । कामिनी के अन्दर भी वह ईश्वर दै) चीटीमे भी ईश्वर है। कनक मे भी ईश्वर है । सर्वत्र ईश्वर है। एक परिवर्तन उनके जीवन मे आया। भारत मेँ भ्रमण करते हुए वे चिन्तन करते रहे--यह शिव को पूजने वाला देश, जगदम्बा को पूजने वाला, कृष्ण को पूजने वाला, महापुरुषों को पूजने वाला, यह वीरो का देश, यह महापुरुषो का देश, यह शाश्वत-सनातन देश, इसकी इतनी समृद्ध संस्कृति टूट-टूट करके बिखर कैसे गयी ? यह अद्वैत को मानने वाली, ऐसे महापुरुषो की संस्कृति, इसमे इतनी छुआछूत कैसे पनपी? इतने मत-मतान्तरो में यह बिखर कैसे गई? यह अपराजिता पराजित होकर परतन्त्रता की बेडियों मे कैसे बँध गई ? यह पीडा उनमें गहरे-गहरे धेंसती गयी । गहरे-गहरे धेसती हुई, फैलती हुई, ओर उनके हृदय मे भी एक पीडा का समुद्र उमडने लगा। उमडने-घुमडने लगा । उनके अन्दर एक सागरीय व्यक्तित्व प्रकट होने लगा। दिखने को दिख रहा था--एक युवा जा रहा है । एक निस्पृह युवा । पर अन्दर-ही-अन्दर एक सागर जन्म ले चुका था। एक सागरीय व्यक्तित्व लेकर वे वहाँ पहुँच गये जहाँ तीन सागर मिलते है। आप-हम भी पहुँच जायेंगे । पर कभी भी हिम्मत नहीं होगी कि सागर के अन्दर छर्लोग लगा दे । उस युवक के अन्दर एक सागर उमड- 15




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