रहस्यवादी जैन अपभ्रंश काव्य का हिंदी पर प्रभाव | Rahasyavadi Jain Apbhransh Kavya Ka Hindi Par Prabhav

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Rahasyavadi Jain Apbhransh Kavya Ka Hindi Par Prabhav  by प्रेमचन्द्र जैन - Premchandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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17 क्या-क्या उपलब्ध होगा यह णोध का विषय ই | ভাঁও সন লাক জল ল अपने एक लेख मे महचन्द कवि कृत॒ दोहा पाहृड' ओर आनन्दतिलक की मुक्तक रचना आणदा' की हस्तलिखित प्रतियों के पाये जाने का उल्लेख किया है, जिन्हें डॉ प्रेमसागर जी ने रहस्यवाद का उत्तम निदर्शन माना हैं। अस्तु उक्त रहस्थवादी काव्यों पर हम आगे प्रकाश डालेगे। यहां संक्षेप भे “रहस्थवाद” के विषय में जान लेना भी अनिवाय है। वास्तव में रहस्यथवाद जनुभूतिपरक होने के कारण 'गृगे केरी शर्करा' है। यही कारण है कि उसको परिभाषा के विपय में 'मुण्डे-मुण्ठे मतिशिन्‍्ना' की उक्त चाग तार्थ होती है । आत्मा परमात्मा एक होते हुए भी भिन्‍न है यही तो रहरय है। और इस भिन्‍नत्व में एकत्व स्थापित करने की पद्धति ही रहस्यवाद हे । इस पद्धति को एवालिन अण्डरह्विल ने प्रेम-पद्धति माना है। उनका कहना है कि रहर्यवाद पद्धति प्रेम-एणद्धति है । यह छिछला राग अथवा सवेग नही, वरन्‌ प्राणमयी धारा है । अन्तविरोधो से छिपा परमतत्व केवल प्रेम से ही प्राप्य है, न बह तर्क से ज्ञेय है और न विचारगम्य है।! इसलिए शायद मुनि रामसिह् का कहना है, “मै सगुणी हू, प्रिय निर्गण और निल॑क्षण है तथा दोनो के एक ही देह रूपी अग में निवास करने पर अग से अग नहीं मिल पाते--|एकाकार नहीं हो पाते, आखिर फ्यों ?” यह क्यों का उत्तर ही तो रहर्यवाद है। प्रेमी प्रेमिका से और प्रेमिका प्रेमी स मिलने को छटपटाती है, इसी प्रकार आत्मा परमात्मा से मिलने को व्याकुल रहती है । कबीर भी 'हरि मोरा पीव मैं हरि की बहुरिया” कहकर ही हरि से अपना प्रेम अभिव्यकत करते है । परन्तु यह प्रेम साधना मार्ग का विणुद्ध प्रेम हे इसमे लौकिक प्रेम अथवा वासनामय प्रेम को अवकाण नहीं। भारत में साधना की दो प्रणालिया अनादिकाल से चली आ रही है। एक लोक-धर्म की प्रतिष्ठा के साथ-साथ परमात्मा भिमुख है. दूसरी लोकधरमं की चिन्ता छोडकर अन्तरात्माभिमूख है । अत्तएव्र दूसरी विधि गुह्य है जिसको रहस्यवाद से सम्बोधित किया जा सकता है। रहस्यवाद का विषय इन्द्रियातीत है। यह सुनने में अवश्य विलक्षण लगता है और प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि इन्द्रियातीत है तो अनुभव कैम होतार? परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि कुछ ऐसी बातें होती है, जो ज्ञातव्य होने पर भी इन्द्रिय का विषय नही होतीं । विद्वानों की मान्यता है कि चित्त बाह्य वस्तुओं के अतिरिक्त अपनी आन्तरिक वृत्तियों को भी जानता है। डां° सम्पूर्णानन्द का कहना है, “अपने सकल्य, अपनी इच्छाएं, अपने राग--चित्त इनको जानता है। 1. एवालिन अण्डरह्विल, 'मिस्टीसिज्म', प्ृ० 72 2. डॉ० रामकुमार वर्मा, कबीर का रहस्यवाद', पृ० 97




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