गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul - Patrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
58
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मई १६७६ )
का कट्टर समर्थक था। पुरस्कार में प्राप्त समस्त
धनराशि एवं भ्रपनी ग्रन्य कमाई शान्ति-निकेतन
को दान कर दी। यह विश्व की श्रपूर्व शिक्षा-संस्था
है जो विश्वविद्यालय नांम को चरितार्थ करती है।
विश्वविद्यालय का भ्र्थ प्रायः लोग यही लेते हैं-
वह विद्यालय जहाँ विश्व के कोने-कीने से विद्यार्थी
अ्रध्ययनाथ भ्राये । किन्तु विश्वविद्यालय का यह
रथं श्रधरूरा है। विश्वविद्यालय का वास्तविक
भ्रथं विश्व विद्याश्रों का आलय है। प्र्थात सर-
स्वनीका वह सदन जहा विष्व की समस्त
विद्या्रों का ग्रध्ययन-परध्यापन होता है। शान्ति
निकेतन में न केवल विश्व के कोने-कोने से छात्र-
छात्राएं ग्रध्ययनाथ्थ श्रते है श्रपितु विष्व की प्रायः
समस्त विद्यांत्रों का अध्ययन-अ्ध्यापन शान्ति निके-
तन होता में है जिसका एक मात्र श्रेय कवीन्द्र रवीन्द्र
को है। हमारी वर्तमान प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा
गांधी ने भी यहा शिक्षा पाई है। सम्प्रति आप
शान्ति निकेतन की कुलाधिपति भी है तथा इसे
केन्द्रीय विश्वविद्यालय का स्तर प्राप्त है ।
“विद्या ददाति विनयम् ।'' रवीन्द्र मे प्रतीव
विनम्रता थी श्रन्यथा-प्रामार माथा नत करेदाश्रो-
मेरा मस्तक ग्रपनी चरणा-धरूलि तक भुका दे।
प्रभु ! मेरे समस्त अहंकार को श्रांखों के पानी में
५७
(सम्पादकीथ
ङा दे । श्रपने भूठे महत्त्व की रक्षा करते हुए मैं
केवल प्रपनी लघुता का प्रदर्शन करता हूं। मैं
अपने सांसारिक कार्यों में भ्रपने को व्यक्त नहीं
कर पाता । प्रम ! मेरे जीवन-कार्यों में तू अपनी
ही इच्छा पूरीकर। मैं तुमसे चरम शान्ति की
भीख मांगने प्राया हुं । मेरे हदय-कमल की झोट
में तू खड़ा रह । ॥
महा विनयी कवि भ्रति संकल्पी एवं दुढ़त्रती
ঘা। उसका कहना हैकि प्राणों के प्राण ! मैं
अपनी देह को निर्मल रखूंगा, क्योंकि मेरे अंग-अंग
पर तेरा स्पर्श है। श्रपने विचारों को ग्रसत्य से
धूमिल न होने दृगा, क्योंकि तूने सत्य के दीपक
से मेरे विवेक को प्रकाशित किया है। मैं अपने
हृदय में पापों का प्रवेश न होने दू गा । क्योंकि
वहां तेरी मूति प्रतिष्ठापित है.। मेरे सब कार्यों
में तेरी हो अभिव्यक्ति होगी, तेरी ही प्रेरणा
होगी ।
इस पुनीत-पावन ग्रवसर पर प्राप्नो हुम कवीन
रवीद्ध को श्रद्वांजलि प्रपित करं तथा उन्हीं
के स्वर में स्वर मिलाते हुए परम परमात्मा से
वन्दना करे एव निमेलता, सत्य प्रौर पुष्य का
বন लं । भ्रस्तु ! ‡
“रामांश्रय मिश्र
User Reviews
No Reviews | Add Yours...