बड़ी - बड़ी आँखें | Bari-bari Aankhen

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Bari-bari Aankhen by उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बड़ी-बड़ी आँखें सुन्दर है कि मेरा मन भी है, पर अभी कुछ वर्ष तक में यहाँ से नहीं जा सकता। ” पठ भर को निरंजनसिह जी रुके, फिर बोले, “बातों- बातों में मुझे पता चला कि बे देववाणी सिरीज' की कुछ पुस्तके हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित करना चाहते हें। तुम इलाहाबाद के पढ़े हो। दोनों ज़बानें जानते हो। यह काम तुम बखूबी कर सकते हो। फिर वहाँ दसियों और काम हें। देववाणी” के हिन्दी-उर्द संस्करण निकालने की उनकी स्कीम है। नथे ढंग का एक प्रैक्टिकल स्कूल वे खोलना चाहते हे, फार्म भी चलाना चाहते हँ। सपने उनके बड़े हें, उन्हें असली जामा पहनाने को सैनिक तो दरकार होंगे ही। “मुझे तो वे जानते भी नहीं और में भी वहाँ के बारे में कुछ नहीं जानता, मेंने कुछ संकोच से कहा। “देववाणी के ये अंक पढ़ लो, वहुत कुछ जान लोगे, रही देवा- जी की बात। सो में उन्हें चिट्ठी लिख दूँगा, तुम्हें भी चिट्ठी दे दूंगा।” उस शाम में दुविधा में पड़ा चछा आया था, पर ज्यों-ज्यों में दिववाणी' के अंक पढ़ता गया, मेरी दुविधा मिटती गयी। देवा जी का दर्शन, उनके सामाजिक और राजनीतिक विचार और उनका रहन-सहन का ठंग मुके आकषित करने छगा। वे अन्धविश्वास के, सनक के, टोने-टोटके, भाग्य-भगवान, भीख या दान के विरुद्ध थे, प्रकृति कौ महान सत्ता को मानते हुए भी वे किसी व्यक्तिगत भगवान के क्रायल न थे। किस्मत को मानना उन्हें मानव के अहम का अपमान रूगता था। दिखावा उन्हें ज़रा पसन्द न था। में कई नेताओं को जानता था, जो सत्य-अहिसा को अमली' जामा पहनाने में चाहें गहात्मा गांधी से पीछे हों, पर जहाँ तक दिखावे का सम्बन्ध है, कहीं आगे बढ़े हुए थे . . . . -एक केवर सिवाड ओौर दही खाते थे । दूसरे % ©




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