भ्रमरगीत-सार [व्याख्या और विवेचन] | Bhramargeet-Saar [Vyakhya Aur Vivechan]

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Bhramargeet-Saar [Vyakhya Aur Vivechan] by नरेन्द्र देवसिंह - Narendra Devsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ ११ ~ दे | बाखकृष्ण विश्व बालको का प्रतिनिधित्व करते हैं महलौका नहीं इसलिए उनमे आकषण और स्वाभाविकता का लावण्य भी राम से उसी अनुपात में अधिक है । बच्चो मे आपस में क्या भेद-भाव ? बच्चें बच्चे एक से | जहाँ बच्चे अपनेपन का अनुभव आपस में न कर सके वहाँ बालकोधित अ्रबोधता का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है । कृष्ण को तो अभिजात्यता की बू छूतक नहीं गईं है। एक साधारण ग्वाला भी उन्हें फटकार सकता है। अगर कृष्ण हार गए हैं तो उन्हे दोव चुकाना पड़ेगा । बालको मे जो बालक दोव नहीं चुकाता उसका बड़ा अपवाद होता है। बालक उसे नीच बालक समभते हैं और अपनी मए्डली से ऐसे बालक को 'बेईमानः कहकर निकाल देते हैं | सूर को इतना लोभ भी न था कि वे कृष्ण को ऐसे बहिष्कृत बालक की स्थिति मे न रखते । वे तो कृष्ण को एक साधारण बालक के रूप में उसकी सभी स्वाभा- विक कमियों के साथ रखते हैं जिससे वह जनसाधारण के हृदय का आलम्बन हो सके | इसमे सन्देह नहीं बालक कृष्ण की इन सहज कमजोरियों ने उनके क्षेत्र को अधिकाधिक विस्तृत ही बनाया है और इस दृष्टि से वे बालक राम से कई गुने बड़े क्षेत्र के अधिकारी हैं | कृष्ण के साथ खेलने वाले बाले तो स्पष्ट कहते हैं कि “खेलत में को काकौ गुसेयों ।” ऐसा प्रतीत होता है कि यूर की बाललीला का यह वाक्य ही मूल-मन्त्र है | सूर के लिए सभी बालक समान हैं इसलिये कृष्ण को विशिष्ट बालक के रूप में चित्रित करने का उन्हें कभी लोभ नहीं रहा । वे जानते ये कि ऐसा करने से उनके चररि का प्रभाव-त्षेत्र सकीणं श्रौर श्रामा श्रपेकज्ञाकृत मन्द पड़ जायेगी । सूर की निम्नाकित पक्तियाँ बालकं के मनोविश्न्न एव उनके सहज श्रधिकार-क्ञान की दृष्टि से सचमुच अद्वितीय ই-_ खेलत मेँ को काकौ रुसैयो | हरि हारे जीते श्री दामा, बरबस ही कत करत रिसैयो | जाति-पॉति हमते कछु नाहीं न बसत तुम्हारी हैयॉ | अति अ्रधिकार जनावत याते अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयों इसके विपरीत तुलसी के बाल-वर्णन में मी मर्यादा का अ्रकुश सर्वत्र लगा रहता है । खेल प्रारम्भ होता है तुलसी के राम और लक्ष्मण एक ओर हें,




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