दलित कहानी संचयन | Dalit Kahini Sanchayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूरज चमकने लगा। सरकंडे चमक उठे-सरकंडे क़लम बने-सरकंडे लिखने लगे दलित समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग अपने अनुभवों को लिखने लगा। आत्मकथा की विधा पनपी और फिर कहानियाँ कथाएँ उगने लगीं क़तारबद्ध होकर खड़ी होने लगीं अन्याय के ख़िलाफ़ वे दलित समाज की विभिन्‍न यातनाओं अपमानों की कथाएँ बनकर बोलने लगीं । कहानियाँ पुंगरने लगीं-अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध बनने लगीं । शासक और शोषक सवर्ण समाज को शर्मसार करने लगीं और अपने को भी मनुवादी मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए टोकने लगीं । कहानियाँ कहीं पीड़ा कहीं प्रतिकार तो कहीं आक्रोश और कहीं परिवर्तन की वाहक बन आह्वान करने लगीं ललकारने लगीं और कहीं अपनों को सावधान करने लगीं तो कहीं दूसरों को चेताने लगीं भीतर और बाहर दोनों तरफ़ जूझने लगी कहानियाँ-मनुष्य को संस्कारित करने के लिए चिन्तित कहानियाँ । कला या शैली नहीं भाषा और कथ्य ही दो मुख्य आधार हैं इनके गुस्से में कला की दरकार नहीं हॉली-पीड़ा को किसी कला से बैँधना ज़रूरी नहीं होता-वह संवेदना जगाती ही है। अपना सौन्दर्यशास्त्र खुद से गढ़ने लगीं कहानियाँ । मराठी में बाबा साहब आम्बेडकर ने चेतना दी । ज्योतिबा फूले ने ज्ञान दिया । साहित्यकार चैतन्य हआ-उसने आत्मकथाएँ लिखीं-जगत के सामने अपने अनुभवों के माध्यम से समाज के विकृत कुत्सित घृणित अन्यायी रूप को नंगा किया। अविश्वसनीय पर सच यही है दलित कहानी अविश्वसनीय पीड़ा जुल्म अत्याचार और अविश्वसनीय सहनशीलता संवेदनशील मनुष्य के रोंगटे खड़े कर देनेवाली और विद्रोह के लिए प्रेरक सच काश यह उस संवेदनहीन सवर्ण मानसिकता को शर्मसार कर पाता मनुष्य तो शर्मसार हुए पर मनुवादी नाम के पशु रसै ले लेकर हँसते रहे। फिर कहानियों ने-दलित कहानी ने-सामाजिक आयाम के हर कोण को पकड़ा । मराठी दलित कथाकार योगीराज वाधघमारे की गुज़र-बसर कहानी के नायक- समा और भिवा माने कंकाल बेचकर जीने की मजबूरी द्शते हैं । पर वहीं वे मिल-बॉँटकर मुसीबत झेलने का मादा भी रखते हैं। वे हारते नहीं हैं। जीने की जिजीविषा उनमें प्रबल है। बाबूराम बागुल की जब मैंने जाति छिपाई में दलित के मन में सदियों से जमी हीन-भावना की बर्फ़ है जिसका पिघलना ज़रूरी है। एक तरफ़ हैं सवर्ण जो जाति को अपने साथ तग्मे की तरह लगाए फिरते हैं-उससे उन्हें सम्मान मिलता है-दूसरी तरफ़ हैं दलित जो जाति को कोढ़ की तरह छिपाने को विवश हैं-नहीं तो समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेगा-हेय मानेगा और वे बहिष्कृत रखे जाएँगे। कारखाने जहाँ समाज नहीं सरकार के बराबरी के सरकारी नियम चलने चाहिए भी इस मानसिकता से अछूते नहीं । ऐसे ही पात्रों के बीच आता है एक दलित नायक...जो दलित चेतना से लैस-बाबा साहब की चेतना से लबालब भरा-जाति छिपाकर नहीं जाति को उछालकर मुकाबले के लिए डट जाता है। दलित चेतना के 14 / दलित कहानी संचयन




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