जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान | Jain - Baudh Tatvagyan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)৬1
८८ निर्मथे नाथपुत्त वांदेन ??
इन उछेखोंसे यह भी पता चलता है कि गोतमबुद्धके समर्यर्मे
पनेंत्रेय मतंके अनुयायी दीर्घेकाल्से प्रचलित थे तंथा महावीर खामीको
धैकर ন सर्वेज्ञ कोक कहते थे । जैसे आजकल जहां दिगम्बर हैं
वहां श्वेताम्तर जेंन हैं वैसे उस प्राचीनकालमें जैन बोद्धका साथर
ब्रंचार था। बुद्धचर्या पु० ५७७ से प्रगट होता है कि राजा আহী-
कके पुत्र महेन्द्र सीछोनमें बुद्ध निर्त्वाणके २३६ वें वर्ष विक्रम
পু १९० में गएथे। विदित होता दे कि या तो वहां पहलेसे
निम्रन्थ मत (जन मत था ) या महेन्द्रके साथ साथ जैन मत प्रचा-
रक भी वहां गए होंगे, क्योंकि बोद्ध प्रन्थ महावेशसे पता चछता है
कि अनुराधघापुरमें निश्नेय साधु थे व निश्नेथ छोग थे। बोद्दालुयायी एक
राजाने उनसे रुष्ट हो उनको हटाकर उनके देवस्थालके स्थानपर अपना
विहार बनवाया । पालीके वाक्य नीचे प्रकार हैं---
पहावश अध्याय ३१२-
वासितो व सदा आसी एकवीसति राजसु ।
ते दिखान पठायेतं निर्भगे गिरिनामको ॥ २॥
पलायति महाका सीहोति युकं रवि ।
ते सुतान महाराजा सिद्ध मम मनोरथे ॥
विहारं एत्था कारेस्स इंचेवे चितई तदा।
'पाठिक दमिलं हत्त्ता सर्य रज अकारर ॥
तो निगगंगराम ते विद्धं सेत्वा महीपति: |
विहार कारई तस्स द्वादस्सपरिवेणिक ॥
भावाथ-इकवीसर्ते राजकुमार सीलोनके अंनुराधापुरमें राज्य
करते थे। मिरि नामके किसी निंश्रथने भागते हुए देखकर जोरसे कंहा
कि महाका सिहक भागे जारदे हैं । यह सुनकर महाराजा सिंहलनें
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