जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान | Jain - Baudh Tatvagyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৬1 ८८ निर्मथे नाथपुत्त वांदेन ?? इन उछेखोंसे यह भी पता चलता है कि गोतमबुद्धके समर्यर्मे पनेंत्रेय मतंके अनुयायी दीर्घेकाल्से प्रचलित थे तंथा महावीर खामीको धैकर ন सर्वेज्ञ कोक कहते थे । जैसे आजकल जहां दिगम्बर हैं वहां श्वेताम्तर जेंन हैं वैसे उस प्राचीनकालमें जैन बोद्धका साथर ब्रंचार था। बुद्धचर्या पु० ५७७ से प्रगट होता है कि राजा আহী- कके पुत्र महेन्द्र सीछोनमें बुद्ध निर्त्वाणके २३६ वें वर्ष विक्रम পু १९० में गएथे। विदित होता दे कि या तो वहां पहलेसे निम्रन्थ मत (जन मत था ) या महेन्द्रके साथ साथ जैन मत प्रचा- रक भी वहां गए होंगे, क्योंकि बोद्ध प्रन्थ महावेशसे पता चछता है कि अनुराधघापुरमें निश्नेय साधु थे व निश्नेथ छोग थे। बोद्दालुयायी एक राजाने उनसे रुष्ट हो उनको हटाकर उनके देवस्थालके स्थानपर अपना विहार बनवाया । पालीके वाक्य नीचे प्रकार हैं--- पहावश अध्याय ३१२- वासितो व सदा आसी एकवीसति राजसु । ते दिखान पठायेतं निर्भगे गिरिनामको ॥ २॥ पलायति महाका सीहोति युकं रवि । ते सुतान महाराजा सिद्ध मम मनोरथे ॥ विहारं एत्था कारेस्स इंचेवे चितई तदा। 'पाठिक दमिलं हत्त्ता सर्य रज अकारर ॥ तो निगगंगराम ते विद्धं सेत्वा महीपति: | विहार कारई तस्स द्वादस्सपरिवेणिक ॥ भावाथ-इकवीसर्ते राजकुमार सीलोनके अंनुराधापुरमें राज्य करते थे। मिरि नामके किसी निंश्रथने भागते हुए देखकर जोरसे कंहा कि महाका सिहक भागे जारदे हैं । यह सुनकर महाराजा सिंहलनें




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