हरिश्चंद्र तारा | Harishchandra Tara

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Harishchandra Tara by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 प्राक्कथन सूर्य का दोप नदी माना जा सकता, उसी प्रकार यदि उल्टी-्रकृति के लोगों को वे श्रैष्ट-पुरुष सदोप दिखाई दें, तो इसमे उन उत्तस- पुरुषो को भी कोई दोषी नहीं कह सकता । चरित्र-चर्णन, पठन या श्रवण, यद्यपि दोनो ही प्रकार के मनुष्यो-का किया जाता है, लेकिन एक को बुरा सममकर ओर दूसरे को मला सममकर । एक के चरित्र को आदशं मानकर तदनुसार आचरण करने के लिए और दुखरे के चरित्र को त्याज्यं मानकर, वैसे श्राचरण से वचने कै लिए । सदाचारी के चरित्र आह्य माने जाते हैँ नौर दुराचारी के त्याज्य । हरिन्द्र कै चरित्र से, सत्य मे अरल, दान में वीर, कष्ट मे धीर और गम्भीर रहने आदि फा आदर्श प्राप्त होता है और तारा के चरित्र से खी-घ्म, पति-प्रेम, पति-सेवा, धर्म-रक्ता, तथा य्ूह- कायै मे दक्तता श्रादि वातो का । रोहित के चरित्र से भी बहुत कुछ शिक्षा मिलती है, जिसका वर्णन यथास्थान है । संसार मे जितने भी दानी हुए है, जितने भी सत्यवादी ओर सत्यपालक हुए हैं, हरिश्वन्द्र का उत सब मे विशेष-स्थान माना जाता है । सब लोग कहते हैं कि धन्य है हसिश्िन्द्र को, जिसने खाने के लिये एक समय का भोजन भी पास न रखा और शरीर पर केवल आवश्यक वस्थ रख, अपनी और अपने पुत्र तथा खी के भविष्य की चिन्ता न कर, राञ्य-पाट आदि सव कुछ दान कर दिया । इतना ही नहीं, बल्कि वचन द्वारा स्वीकार की हुई दक्षिणा निश्चित समय पर देने की प्रतिज्ञा पर--पास मे एक भी पैसा न होते हुए--हृढ़ रहे और स्त्री को बेंच तथा स्वयं बिककर, अपने वचनो का पालन किया | इसपर भी अपनी




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