श्रावक का परिग्रह परिमाण व्रत | Shravak Ka Parigrah Pariman Vrat

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Parigrah Pariman Vrat by सेठ ताराचंदजी गेखड़ा - Seth Taarachandji Gekhada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ इच्छा-मूर्छ देखते हैं, कि इच्छा और मूछो का जन्म कैसे होता है, तथा इनका स्वरूप कैसा है । संसार में जन्म लेने वाले प्राणी कर्मलिप्त होते हैं। यदि कर्मलिप्त न हो, तो संसार में जन्म द्वी न लेना पढ़े । यह बात दूसरी है, कि कोई जीव कर्मों से कम लिप्त है और कोई अधिक लिप्त है, लेकिन जो संसार में জল্মা है वह कर्मलिप्त अवश्य है। कमेटित्त होने के कारण, आत्मा अपने ररूप को नहीं जानता, अथवा जानता भी है तो विश्वास था हृढ़ता नहीं रखता । आत्मा, सच्चिदानन्द स्वरूप है। यह 'सत! अथोत्‌ सदा सहने वाडा “चिद्‌? अथांत चेतन्य रूप और 'आनन्द' अथीत्‌ सुख-निधान है । यह स्वयं सुख रूप है, फिर भी कर्मलिप्त होने के कारण अपने में रहा हुआ सुख नहीं देखता, स्वयं में जो सुख है. उस पर विश्वास नहीं करता, लेकिन चाहता है सुख ही | इसलिए जिस प्रकार स्वयं की नाभिमे ही सुगन्ध देने बाली कस्तूरी होने पर भी, मृग, घास पूस को संघ २ कर उसमे सुगन्ध सोजाता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं में रहे हुए छुख को भूर कर टर्यमान जगत मेँ सुख मानने लगता है। दृश्यमान जगत में सुख है, यह समझ कर आत्म बुद्धि को, ओर बुद्धि मन को प्रेरित करती है, तथा मन उस सुख को प्राप्त करने के लिए चचलछ हो उठता है। इस प्रकार मन मः सांसारिक पदार्थों की इच्छा उत्पन्न होती । अथोत बाह्य




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