जैन सौरभ | Jain Sourabh

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Jain Sourabh by मुनि श्री छत्रमल - Muni Shri Chhatramal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किनने विनोत ? वावन गजा थे बावन गजा ही, रह्या हेस पोशाल। अक्षर बिन मायो बांध्यां ही, हेम संघाते चाल॥ कहा. गया-- न.हंस के सीखे हैं, न रो के सीखे हैं। जो-कुछ भी सीखा है, किसी के हो के सीख हैं॥ व॒स्तुतः विनेय-भाव पूर्ण समपर्ण से ही निखरा करता है। इसलिए सुविनीत शिष्य गुरु के हर इंगित ( काय चेष्टा ) को समभने वाला हुआ करता है। दीक्षित- होने के बाद मुनि श्री जीतमल নর हेमराजजी की “हेम पोशाल” में रहकर अध्य- यन करने টা में 'हेम पोशाल? के सन्त बहुत बड़े प्रतिभा सम्पन्न, सुविनीत व संघ प्रभावक. हुए। हेम पोशाल के सुनि श्वी स्वरूपचन्दजी, मुनि श्री कमेचन्दजी, सुनि श्री सततीदासजी [ ६ ]




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