मंगल वाणी | Mangal Vani

Mangal Vani by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्या दिषार रख बार दस रहा है-उसकी ऋलरः प्रकट हुए विना न्दी रहती है । जिस हपत्यी के मुह से घहुँंकार या क्रोधष की बात निकुसती है कि र्मे तपस्यी हैं, ऐसा करो बरना में ऐसा कर दूंगा तो एमसे डरने की जरूरत नहीं है । ऊपर से भले ही यह साधु हो, तेकिन घोसे से भरा है | उसके प्रन्दर में पाप भौर हिंसा है। वह मध भौर तत्र से दराता है पोर मन में क्रता रसता है तव साधु फंसा हएुप्वा ? भगषान्‌ ने कहां है कि जो मत्रन्तंत्र को पढडता है, यह पापी है। मनुष्य यदि पत्थर रूपी रत्नों फो पहिधान कर টানা है हो घ्यक्ति भौर सापरा की पहचान वयों नहीं कर सहता ३? भगवान्‌ की प्रात है कि प्रान्तरिष्ता फो प्चानो । मुनिपो का मामं फटोरतम होता है भगवार्‌ की ध्राप्ञाप्रों के प्रनुतार मुनियों का पायं कठोरतम होता ह । भगदान्‌ षी वर्ण सेवा बेथल ठप श्ये मे ही मही हेती £ । सम्पर्‌ हान, गम्यत्‌ शरदा, सम्पद्‌ प्राषरणा, सरसता, नम्मता, फोमलता, লিনা, तिराकार गृति, प्रपंघ-मुक्ति प्रादि फई सरगुण हैं, शिनरी उपततरस्पि का पुरपाधें रंग महरइपुणंं नहों होता है। मुनि फो परोभवार को हाटि से भो यह नहीं ছলনা ऐोता है कि प्राप पुर घन्‍्दे में इतने रुपये तिशाधों । भ्रमर सापु उस परे ध्याय शालता है तो यह सापुस्थ जी যার दीह! सपरुषो मो सोमा स्मिता मे एकएम परप्ग-प्तय हो जाता चाहिये । पन्‍दा ने फे विये कहना तो प्रतत, रषये भागने रोह चन्द्‌ दैः सिये दिस पर दशय रामे पौर उप्ते हैने वाल वी पएदृरचों मेरटप्रस्त हो सो यह भी उपित नहीं है। साधु को उप- [হাত मे मदि प्लाप फाद्ा बएते हैं घोर गापु हद मही गहता है तो देते याते हो চা হা भी दशापघ सममः पाष्या | ঘা ইস थाने में रिमाग पर दो एष में! प्रसार होंगे | एकं तो यह है हि महाराद सो प्रपस्ब्रिहीं पहलाते है, दिए परिषद था पद क्यों गरा एहे है) प्रषग यह हि महाराज কউ হার द) पप, क्र पिदश ते क्दादा ऋर्दा मिझाया ই খায় {दिर परमे पारि- धक लीष्न ये भर उरश । माप जै प्रमोय मे कन्हे षा पापं मरना हीरा गद्टी है । प्ण त दोक मे पिततः पुड्‌ अमो रटे सोहि प्यर्‌ पदर जिये को शहर तपु शो दर्पदो मे दाप्य क मो ওল বাতা বর पष धा दिशा शहीं पमी 1 श्य दपं छोर আইলা पया प्रो पन्थ दध হা বিন दाप्या 1 श्या सीद रयो ক लिए काटा गहीं पिछला ? सिर दै




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