खैयाम की मधुशाला | Khaiyam Ki Madhushala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ केवल सात दिन में समाप्त हो गया पर इसे करते हुए मुझे ऐसा लगा कि इसमे मेरे सात बरस की मेहनत लगी है । रूपातर करते समय मुझे आभास हुआ कि जैसे पिछल सात वरसो में किया हुआ प्रत्येक पा और उसकी प्रतिक्रिया कुछ न कुछ सहायता दे रही है। लोग मुभे अक्सर पूछते थे कि अनुवाद में कितने दिन लगे झ्रीर म॑ नि सकोच कहता था कि सात वरस। मेरा मन साफ दै किमे उनसे शूठ नही कहता था । हिंदी पत्र-पत्रिकाग्रो के देखते रहने के कारण यह्‌ तो मु मालूम या कि साहित्यकारो का ध्यान उमर खैयाम की कतिपय रुवाइयो की ओर जा रहा है परतु अपने जीवन के तूफानी दिनो मे जब पहले पहल उमर संयाम की सारी रुवाइयो को रूपातरित करने की वात मेरे मन मे श्राई उस समय मुझे यह नही ज्ञात था कि अन्य लोग श्रपने ग्रनुवादो को पूरा करके पुस्तका- कार छपाने की आयोजना कर रहे है । मुर्के जीवन से अवकाश मिले कि में कलम लेकर जो कुछ हृदय में हिलोरें मार रहा है उसे कागज पर उतारू कि बावू मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद सन्‌ १६३१ मे प्रकाशित हो गया।* श्रौर साल भर के वाद ही पडत केशव पसाद पाठक का ग्रनुवाद।>* यह्‌ दोनो श्रनुवाद जिस ठाट-वाट श्रौर जिस श्रान-वान से निकले थे उसे देख- कर यदि मेरे मन में श्रपने अनुवाद को पूरा करके इनकी प्रतियोगिता मे रखने की वात होती तो उसे उसी समय ठडी पड जानौ चाहिए थी । मुझ श्रज्ञात लेखक का अनुवाद कौन प्रकाशित कर सकता था। १६३२ में मेरी कविताओ्रो का एक सम्रह प्रकाशित हो चुका था पर उसके लिए मुझे जो दौड-धूप करनी पडी थी श्र जिन लज्जास्पद शर्तों पर मुझे उसे प्रकाशक को देना पडा था उसका कड भा पाठ में श्रभी न भूला था। ग्रनुवाद तो मेरे कृठ से, म॑ फिर कहूगा, फूटा पडता था और मेरे लिए श्रव उसे रोकना प्रम- भव था | उमर शयाम की रुवाइयो कै प्रति मेरी प्रतिक्रिया अपनी थी, मेरी लय झपनी थी, मेरी ध्वन्ति श्रपनी थी, मेरी श्रनुवाद को वारणा अपनी थी, विधि अपनी थी, और इन सबसे श्रधिक महत्त्वपूर्ण इसे आरभ करने की १ प्रकाश पुस्तकालय, कानपुर । २ इडियन प्रेस लिमिटेड, जबलपुर ।




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