प्रेमोपहार | premophar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृव-भारत के गाँव १७ यहाँ विद्यार्थियों के लिये अन्न-चल्र का समुचित प्रबंध सरकार स्त्रय॑ करती थी । यहाँ के राजा खजाने का एक पेसा भी छूना पाप समभते थे। यहाँ के लोग देश-विदेश परिभ्रमण कर, “श्यं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्‌ ; उदारचरितानां तु অন্তু कुटुम्बकम्‌ ।* ८ यद मेरा है, वह दूसरे का; ऐसा मंद चुद्धिवाले कहते हूँ | ददार मनुष्यों के लिये तो सारा संसार ही अपना कुटु व है। ) का पाठ पढ़ा समानता का व्यव- हार करने का महोपदेश करते थे | क्या आप घ्राज के सास्य चाद में इससे सु दर व्यवस्था पाएँगे ? रामायण की बातें पुरानी हैं, इसमें मतभेद हो सकता हे । महाभारत भी छोड़ दोजिए | चंद्रगुप्त, अशोक, हपेवद्ध न तथा विक्रम का ही शासन-काल लीजिए । विदेशी राजदूत अपनी डायरी में क्‍या लिखते हँ-- “राज्य में प्रज्ञा सब प्रकार सुखी थी | कला-कीशल, उद्योग- শপ उन्नति के शिखर पर थे। सभी अपने-अपने धर्म पर चलते थे। विद्वानों का आदर था। विद्यार्थियों के अन्न-वस्त्र का उचित प्रबंध था। खोजने पर भी कोई अपद नहीं मिलता था | कोई मूठ नहीं बोलता था। गाँव साफ़-सुथरे थे। कोई भूलकर भी मादक द्रव्य ( ताड़ी, शरात्र; गाँला, भंग ) नहीं पीता था | शासन कमेदियों द्वारा होता था। चोरों का भय न था, अतः घरों में कोई ताला न लगाता था।' अशोक के समय में बने स्तंभ अब भी पुकार-पुकारकर




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