मेरी मुक्ति की कहानी | Meri Mukti Ki Kahani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी मुक्तिकी कहानो १७ करता रहा-! सबका विकास होता है और उसके साथ मेरा भी विकास होता है; सबके साथ मेरा विकास क्‍यों होता हैं, इसका पता भी कभी लग जायगा।' उस समय इस तरहका विश्वास मुझे बना लेना चाहिए या। । विदेशे लोटनेपर मै देहातमें वस गया । यहाँ मुझे किसानोंके स्कूलमें काम करनेका मौका मिला, यह काम खास तौरपर मेरी रुचिके अनुकूल था। इसमें मुझे उस झूठका सामना नहीं करना पड़ता था जो साहित्यिक सावनोंसे लोगोंको शिक्षा देते समय मेरे निकट स्पप्ट हो जाता था और मुझे घूरता था। यह ठीक हूँ कि यहाँ भी मैंने प्रगति' के नामपर काम किया; पर में अब स्वयं 'प्रगति' को संदेहकी दृष्टिसे देखता था। मने अपनेसे कटा-- कुछ मामललोमें प्रगति गलत ठंगसे हुई हं । इन आदिम सीधे-सादे किसानोंके वच्चोंके साय तो पूरी आज्ादीसे ही बर्ताव करना चाहिए और उनको खुद चुनने देना चाहिए कि वे प्रगतिका कौन- सा रास्ता पसन्द करते हैं ।'- वास्तवमें में एक ही असाध्य समस्याके चारों तरफ लगातार चक्कर काट रहाथा; वह समस्या यह थी कि क्या शिक्षा दो जाय', यह जाने विना, किस तरह शिक्षा दी जा सकती हैं। ऊँचे द्जेकी साहित्यिक सेवाके समय मेंने यह महसूस कर लिया ঘা कि कोई तबतक शिक्षा नहीं दे सकता जबत्तक यह जान न छे कि कया शिक्षा देनी हू । मेंने देखा था कि सव लोग जुदा-जुदा ढंग से शिक्षा देते हें जौर आपसमें लड़कर सिर्फ़ एक-दूसरेसे अपना अज्ञान छिपानेमें सफल होते टं । छेकिन यहाँ किसानोंके वच्चोंके वीच काम करते हुए मेंने यह कठि- नाई दूर करनेके लिए सोचा कि में उन्हें पूरी आजादी दे दूंगा कि वे जो चाहें सीखें। अब मुझे यह याद करके आनन्द आता है कि में अपनी शिक्षा देनेको इच्छा तृप्त करनेके प्रयत्नमें क्या-क्या करता था । अपनी अंतरात्मामें में अच्छी तरह जानता था कि में कोई उपयोगी शिक्षा नहीं दे सकता; क्योंकि में जानता ही नहीं कि क्या उपयोगी हैं । सालभर तक स्कूलका काम करनेके वाद में दूसरी वार इस वातकी खोज करने विदेश म ग)




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