अपभ्रंश भाषा और साहित्य | Apabhrans Bhasha Or Sahitya

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Apabhrans Bhasha Or Sahitya by आचार्य विनयचन्द्र - AacharyaVinaychandraदेवेन्द्र कुमार - Devendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपभ्रश লানা ये स्वर हृस्व, दीर्घ शभ, ए, ओ' का भेद भारत ईरानीमे भाकर लुप्त हो गया } दीर्ध काल तक एक जगह रहनेके वाद ये प्रजाएँ भिन्न हुईं । इससे उनकी भाषा और विकास-धारा भी अलग-अलग हो गयी । भारतमे आये हुए आर्योका प्राचीनतम साहित्य वेद है, यही पुरानी भारतीय आर्य भाषा है। इस साहित्यमे जिस समाज और सस्क्ृतिका वर्णन है, उसपर भारत ईरानी अवस्थाकी छाप अवश्य है। ऋग्वेद एक व्यक्ति या एक कालका साहित्य नही हैं । वह प्रजाकी रचना न होकर पुरोहित साहित्य है । ब्लृम फील्डने वताया है कि ऋग्वेदके १५ पादकी १५ वार पुनरावृत्ति है। इससे यह्‌ फलित होता है कि खास तरहके वावय और शब्दप्रयोग, विप्रगणोमे प्रच- लित थे । पयरचनामे इन्ही प्रचलित गब्दोका व्यवहार किया जाता था। ऋण्वेदका कवि वार-वार यह दोहराता हैं जैसे कोई सूधार, र॒थके विभिन्न अगोको इकट्ठा करके रथ बनाता है, वैसे में भी काव्यको बनाता हूँ । फिर भी अथर्ववेद तक आते-आते उसमे भी परिवर्तन होने र्गा । जंमे ऋर्वेदका 'चर' / 172%1९०८' जो 'ईरानीमें 1172111 होता ह सथर्वमे चक' हो गया । व्वनियोमे दी नदी रूपमेँ मी यह्‌ प्रभाव लक्षित होता ह । यह्‌ एक विचित्र वात है कि प्राचीन भारतीय भाषाका रूप विद्यमान है। पर उससे विकसित वोलियोका रूप नहीं मिलता। यह निश्चित है कि आर्योकी भाषाका केन्र उत्तर मघ्यदेश ण । आयोकि इस केद्रकी भापा जिष्ट मानी गयी । पाणिनिने उसका व्याकरण लिखा। इस प्रकार सस्क्ृतके विकासमे विप्र ओौर दिष्ट प्रभाव हं । लेकिन इस केन्द्रके आस-पास प्राकृत वोलियोका स्वाभाविक विकास होता रहा । ई० पूर्व पाँचवी शतीमे इनमे नया जीवन आया, यहीसे भारतीय आर्य भाषाकी दूसरी भूमिका शुरू हुई । आयं भाषा ओर प्राकृत बुद्ध मौर महावीरके नवीन आन्दोटनोसे भारतीय भापाओमे नवीन प्रभाव आया । इनमें वैदिक भाषाकी अपेक्षा अनार्य प्रभाव अधिक है ५ इसका एक कारण यह भी है कि ये महापुरुप पूर्वमे उत्पन्न हुए। अत वहाँकी जनतामे प्रचार करनेके लिए इन्हें अधिक प्रयत्न करना पडा | इसका सुपरिणाम यह हुआ कि बोलियाँ भी धर्म और साहित्यका माध्यम बनने लगी । पर इससे यह न समझना चाहिए कि सस्क्ृत लुप्त हो गयी, प्रत्युत वह अधिक गतिशील हो उठी। अब यह यज्ञ-अनुछ्ठान ओर तत्त्व १ भा० भ्रा० भा० श्रीर्‌ हिन्दी १० ३३--१६।




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