सेवासदन | Sevasadan

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Sevasadan by प्रेमचन्द - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेवासदन श्३ हाकिमों के मन में सत्देह उत्पन्न होगया । उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहां। सारा रहस्य खुल गया। एक महीना बीत चुका था । कल तिलक जानें की साइत थी । भव्य हि दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे उस समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया । उसके पीछे दो थानेदार और कई कान्सटेवल चल आ रहे थे । कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया । कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया 1 वह जडमूर्ति की भाति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया । उनके चेहरे पर भय न था लज्जा थी । यह वही दोनो थानेदार थे जिनके सामसे वह अभिमान से सिर उठा कर चलते थे जिन्हे वह नौच समभतें थे । पर आज उन्हीं के सामने वह सिर नीचा किये खडे थे । जन्म भर की नेक- नामी एक क्षणमे धूल में मिल गयी । थाने के अमलो नें मन में कहा और अकेले-अकेले उडाओ 1 सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा -वेल किशनचन्द्र तुम अपने बारे में कूछ कहून। चाहता हैँ ? कृष्णचन्द्र ने सोचा--क्या कहूँ ? कया कह दू कि में विल्कूल निरपराघ हूँ यह सब मेरे दानुओ की गरारत है थानेवालों ने मेरी ईमानंदारी से तंग आकर मुझे यहाँ से निकालने के लिए यह चाल खेली है ? . पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे । उनकी आत्मा सत्य अपने अपराध के वोक्त से दबी जा रही थी । वह अपनी ही दृष्टि मे गिरगए थे । जिस प्रकार विरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता हूँ उसी प्रकार सज्जन का दड पाना अनिवार्य है । उसका चेहरा उसकी आँखें उसके आकार-घ्रकार सब जि ह्वा बन-वन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते है । उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाघीद बने जाती हूँ । सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियों में पड़ जानें पर अवइ्य राह भूल जाता है । क




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