राष्ट्र निर्माण में गुरुकुल का स्थान प्रथम भाग | Rashta Nirman Mein Gurukul Ka Sthan Bhag 1

Rashta Nirman Mein Gurukul Ka Sthan Bhag 1 by देवराज - Devraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ बने भह पाता । इती प्रकार नके मन मे प्रम्वक्षित हुआ जीवन का ध्येय रूपी अग्नि कभी बुमने नही पाता । तना ही नहीं, परन्तु उवङ सन्तान मं मी वही भगिनि सङ्घक्प बल से प्रतिष्ठित हुआ होता है। श्सी अग्निष क्षाम নিগ্বান को अह करने कै व्यि भपने जीवन का ध्येय बनाकर गुरुकुक्ष में यह वालक ब्रह्मचारी अपने ध्येय को पूर्ण करने की हकक्‍्ड्ा से आत्म-समर्पण करके प्रविष्ट होता है। निरुह श्य खिलवाड़ के तोर पर ग्ृहस्थघरम का पालन करने वालों से उरपन्‍न बालक ल्ाबारिस बालकों के समान होते हैं वे गुरुकुल में प्रविष्ट होने योग्य नहीं होते । সালা তন্তু अपने मनों में विधमान भगिन को प्रक्व- लित, उत्सादित करने के लिये झायाय छी अग्नि में समिषा का झाधान करना होता है | इस प्रकार समिधाचान करते हुए अग्निको प्रज्वज्षित रखना, उसे बुकूने न देना, यह अह्मचारी की भग्नि-तेषा दे । २--श्राचायं-सेवा प्रह्यवारी के कार्य-क्रम में दूसरी सेवा भााय-सेवा है। आचाय भी श्रग्नि है। अग्नि के धर्म सब के झनुभव में भ्राते हैं--प्रकाश और गर्मी । झाचार्य ज्ञान और विज्ञान से ब्रह्माचारी के मन को प्रकाशित करता है भोर उसे कमंशीज़ घनाने के लिये उत्साहित रखता है। हमारी को इश्सादित रलना ही उते गर्मो पहुँचासा है ।




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