वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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Vaidik Dharm by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वैदिक अथंन्यवस्थां मसुध्व षष्च। गतिमानं है । चित्त तरह प्रभावी पुत्र जिस माताक होता दे, उस माताको पुत्रवतती › कते ह , न्दी तो बहुत ख्तियां पुत्र उत्पन्न करती हैं कौर सूचरीको तो বুল ভূ प्रतान होते हैँ, पर उनको कोर नहीं पूछता । इसी तरह सद ही गतिमान्‌. होने ‹ जगत ' कदरूय जयने, परंतु अपनी गातिकी मनुष्य प्रगति करके জন্বর্ম वष्ट परमपद प्राक्त कर सकता हे, इसल्यि मचुष्य ही लपनी गति संपञ्नताका उत्तमोत्तम उपयोग करता है, अत मनुष्य ही सच्चा गतिमान्‌ है, अतएव सत्य भर्थसे “ जगत्‌ › है । एक व्यक्तिको ^ जगत्‌ ' कहा जाता है नौर उन भनेक जगती समष्टिको ' जगती › कहते है । इसकी ताशिका ऐसी होती है जगत्‌ जगती एक बहुत ब्यष्टि समष्टी व्यक्ति समाज क्षमति `“ सभूति असंभव *'* संभव विनाश *'* अविनाश यहां प्रश्न द्वोता है कि क्‍या ब्यक्ति स्थायी है अथवा समाज स्थायी है | ग्यक्ति मरतो रै भौर समाज स्थायी रक्ता है यह भनुभव हर कोद जानता है। दिंदु व्यक्ति भरती हे, परतु हिदुसमाज् अजरामर हे, स्थायी है । हसी तरह भन्य समाजोके विषयमे जान सकते है । प्यक्ति मरती है, प्रत्येक व्यक्ति मरनेवाली है, भोर उन व्यक्तियोंका बना समाज स्थायी और अमर है, यह दम सर्वत्र देखते हैं । हिंदु ब्यक्तिमां मर रहीं हैं, पर द्विंदु समाज दस सहस्न वर्षोसे है भौर भविष्यमें भी रहेगा | तो धन मरनेवाछे, नाश होने- बालेका नहीं हो सकता, घन तो स्थायी रइनेवाके समाजका ही हो सकता है, यह बात तो स्पष्ट ही है । यहां प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि ' कस्य (प्रजापते. ) घन ' दक्त मनर मागका भयं ब्राहण पचनानुसार “ प्रजा- पशिका धन है ' पुसा है । यहां कोई पूछ सकते हैं कि धन प्रज्ञाका है वा प्रजपतिका है ! अर्थात्‌ यहां घन जनताका हैं वा शासकका है । प्र नौर्‌ प्रजापतिमें स्थायी भाव (१०७) किसका हे ! उत्तरमें हम कह सकते हैं कि * प्रजा ! स्थायी है और “ प्रज्ञापति ' बदलनेवाला है । ! प्रजा ` स्थायी रती है ' राजा ! बदछता रहता दे । प्रजाका भर्थ ' छोक समूह, जनता, मानव समाज ' स्थायी है, (राजाः रहे या न रहे, * पाछन करनेवाल! ! द्वो या न हो, प्रजा रहती है भोर रहेगी । इसलिये “ प्रजा ? मुख्य दे और ' प्रजा- पति ` गौण है । प्रजाके रद्दनेपर प्रजापति रहेगा, परंतु प्रजा- पतिके कारण प्रज्ञा रद्दती द्वे ऐसा नहीं कद्द सकते । राजा, पाक, शासकुकी कल्यना पीछेसे उश्पन्न हुई है। पद्ििके जनसमात्र था। जनसमाज बहुत वर्षसे था, पश्चात्‌ राजा होनेसे कुछ छाभ होते हैं, हसकिये राजा निर्माण किया गया। भौर कहा कि 'राज्ा रअयते प्रज्ञा: ' राजा वह है कि जो प्रजाका रक्षन करता हैं। अथोत्‌ प्रन्ना निरपेक्ष है, राना-शासक-पालक रहे या न रद्दे ' प्रजाजन ! तो रहेंगे। वेदसें कहा दै-- ¢ विराड्‌ वा इदमय आसीत्‌ भधवे० १५ ‹ विराज्‌ ' भर्थाव्‌ राजविदीन प्रज्ञाजन ही पिरे थे। ! इस सम्रय राजाकी कल्पना भी निर्माण नहीं हुईं थी । पर उच्च समय प्रजञाजन थे | छोक थे, जनता थी। पश्चात्‌ शासककी कल्पना हुई है। क्धोत्‌ जनसमाज शाश्रत अथवा मुख्य भौर शासक, प्रजापति गौण दे । रक्षन करनेवाछा गोौण द्वोता है और जिसका वद्द रझ्नन करता है वह मुख्य होता दे । प्रजाजन न रहे तो सजा रद्द ही नहीं सकता, परंतु राज! रहे या न रहे प्रजाजन तो रह सकते हैं । “क्रस्य ( प्रजापतेः ) धन ' इस मंत्रमांगमें जो कहा है कि घन प्रजापतिका है, प्रजापालकका है, डसमें यद्द भाव है कि प्रजाक्ी पाछताके किये ही धन है, क्योंकि प्रजा दी मुल्व है, पारक उस प्रजाका अश सेवक, पारनं कमे करनेके किये नियुक्त किया कार्यवाहक है। प्रज्ञा पाछन शच्छीतरहसे करेगा तो वह कार्योहयमें रद्देगा, प्रजाका पाछन क्षर्छी तरहसे उससे न होने छगा, तो वह अपने स्थानसे हृठाया भी जायगा । वेदमें एक प्रजापजिको हटाकर दूसरे प्रजापािको उषे स्थानपर रखनेका वणेन हे।




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