वियोग - कथा | Viyog Katha

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Viyog Katha by जगन्नाथ मिश्र - Jagannath Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) ~ = (४) लो--हे घन कै हरिण सलोने, लो-यह ्रश्र -लङोका हार ! जहां मिले प्रियतम दे देना, कह देना उरा उट्‌गार॥ (এ) भाद्र-मास की कुह-निशा हे । जलद-जाल-पूरित है व्योम! विस्तृत-विश्व विराव-हीन है खिश घोर चहु दिशि तम-तोमा (दि मघोर में छिपे हण है कलित कलाघर कुमुदिनि-कान्त अन्धकार मे सटक रहे है, पथ-परिश्रषए्र-पथिक-परिश्चान्तः (७) तो भी मार्ग न भूल इधर, श्रा जाते मेरे प्राणाघार ! जिन्ह देख में नेत्र जुड़ाती, पाती निस्मेल शान्ति अपार |. জি




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