वर्ण - व्यवस्था | Varn - Vyavasthaa

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Varn - Vyavasthaa by मोहनदास करमचंद गांधी - Mohandas Karamchand Gandhi ( Mahatma Gandhi )

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० अिसलिओ बुद्धिसि काम लेनेवाले सच्चे शोधकको रास्ता भूलनेका डर नहीं हो सकता । भितना होनेपर्‌ भमी अगर कोओी आदमी नये विचारको छोड़कर पुराने विरोधी विचारकों पकड़े, तो समझना चाहिये कि या লী वह बुरे भिरादेसे असा करता है या वैंह अभी विचारकी आअसी सतहपर है, जहाँ गांधीजी किसी समय थे । ओऔमानदार शोधक गांधीजीके विचारोंका सार निकाले तो वह दूसरी बात है, जेसा “ गांधी-विचार- दोहन ” में मेंने किया है । अगर काओ किसीके टेखोको लापरवाहीस पट, असमे भस्तमाल किये गये शब्दोंको लिखनेवालेके मानीमें नहीं, वल्कि अपने'माने हुओ अथर्मे ही समझा करे ओर फिर गड़बड़में पड़कर टीका करने बेंठे, तो आअध्षका कोओी ओआिलाज नहीं । भसं टीकाकार खुद ही गड़बड़में नहीं पढ़त, बल्कि असली लेखोंकी न पढ़नेवाले अपने श्रोताओं और पाठकोंको भी गड़बड़में डालते हैं ॥ अतना कह कर अआतावछे पाठककों सावधान करनेकी ओर यह्‌ दिखानेकी गरजसे कि गांघीजीकं विचारामिं भ्रीरे धीरे कैसे फं पड़ता गया है, अक अआुदादरण देता हूँ । ब्राह्मण, क्षत्रिय वगैरा वर्णो, मोद्‌, राड वगेरा जातियों और ब्राह्मण अन्राह्मण जैसे फिरकोंकी बुानियादपर खड़ी हुआ जातियाँ -- तीनों अलग अलग चीजें हँ। आन सबके लिओ अप्रेजी “ कास्ट ! शब्द काममें नैस गड़बड़ें पदा होती हैं । आम तोर पर गांधीजीने तीनोंके भेद अलग अलग लफ्जोॉसे दिखाय हैँ । किसी जगढ्द अक ही तरहकी परिभाषा न रखी जा सकी हा या ओके बजाय दूसरा शब्द भस्तमाल हुआ दो, वहाँ बहुत करके प्रसंगसे सफाओ हो जाती है । अब, जिन तीनमेंसे मुझ याद नहीं कि गांधीजीने जातियोका होना अपन जमाने जष्री था अच्छा माना द्वो । यह तो हो सकता है कि आनकी बुराओ करनेकी भाषा सख्त होती गओ दो । ओक समय जातियोंको तोड़ना ऑओन्हें ज़रूरी मालूम होता धा, लेकिन अभ्रा नहीं लगता था कि तोड़े बिना काम नहीं चलेगा । अब तो आऑन्हे असा ही लगता है कि जातियोंको तोड़े बिना काम नहीं चल सकता ।




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