गुरु गोविन्दसिंह | Guru Govindsingh
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
267
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २ )
रहा। वही वसंत ऋतु पहले खल्प, फिर धीरे धीरे अधिक,
क्रमशः प्रचंडतर भ्रोऽ्म ऋतु मेँ बदल्ञ गई । भगवान् अशुमाली,
जिनकी फीकी ष्योति शीत ऋतु में कुहरे ঈ से कठिनता
से निकल पाती थी, अब भपनी प्रचंड किरणें से संसार का
दग्ध करने रौर जीवं को जलाने लगी ! जहां लिहाफ জী
रजाई ओढ़े हुए सी सी किया करते थे, वहीं अब 'वफंका
पानी” शऔ्रर हाथ में पंखी चलाने लगे । कभी गुमान भी
नहों होने लगा कि लिहाफ क्योंकर ओढ़ा जाता था । शोत
काल की सनसनाती तीखी हवा कं बदले लू कं भोकों
से जी उबने लगा। तृष्णा से तालु ष्क शरोर प्राण कंठगव
होने लगे। नदी-नाले सूखने, पेड़-पल्लव मुरभाने, प्राणी-
गण छरटपटाने भौर हाहाकार करने लगे। इतना सताकर
'ग्रोषमः श्रपते ही विनाश का कारण बन गया। अयोँज्यों
गरमी अधिक अधिकतर होने लगी, त्यां त्यों पानी के भपारे
जमा होने ओर वर्षा के सूचना-सूचक बादल के छितरे टुकड़े
गगन में दृष्टिगाचर होने लगे। लोगों के प्राण उद्धिम्म हो
रहे हैं। ऐसे समय में वेही छोटे छोटे टुकड़े लगे एकत्र
होने। एकत्र द्वोकर इन्होंने पहले छोटा, फिर बड़ा काला
“निदाघ कादंषिनीः का रूप धारण किया। वदी “लू? महाराज
ने बहुतेरा चाहा कि उन्हें उड़ाकर किनारे करें, बहुतेरा
साँ सूँ किया, हाथ पेर भी मारे; पर “मरज बढ़ता गया, ज्यों
ज्यों दवा की? फे झनुखार यह बादल चढ़ता-बढ़ता सारे
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