व्याकरण-कौमुदी [द्वितीय भाग] | Vyakaran-Kaumudi [Dwitiya Khand]

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Vyakaran-Kaumudi [Dwitiya Khand] by श्रीनारायणचन्द्र देवशर्म्मा - Shreenarayan Devsharmma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८...» व्याकरण-कोमुदी, द्वितीय भाग । [प8०४07) ह्वादि (1910 ००४|०६०४०४), खुरादि (1७१४ ८0४1८९2० य॑ दसं यण हः (१) साधारण नियम (कलालः (४168) } ४। विभक्ति का अकार अयवा एकार परे रहने से पूवः वतीं अकार काः व्योष होता है (२) यथा, मव-अन्ति, भवन्ति सेव-ए सेथे । ५। विभक्ति काम अथवा व परे रहने से पृ्वंचर्ती अकार के स्थान में आकार होता ই (ই) । यथा, मव-वस्‌, भवावः ` भव-पत्त्‌, अवामः । ६1 अङ्गार द परस्यित अते, अथे, आताम्‌, आथाम्‌ इन कई पक विभक्तियों के आकार के स्थान में इकरार होता है (४) । यथा, सेव-आते, सेवेते; सेद-आथे, सेबेथे; सेव- आताम्‌, सेवेताम; सेव-आथाम, सेवेधास। ` ७। अकार के परस्थित विधिलिङ्‌ के “युस्‌” के स्थानमें इयुस्‌ ओर “याम” के स्थान मँ इयम्‌ होता है ; तद्धिन्न समस्त या भाग के स्थान मेँ इ होता है (५)। यथा, भव-युस्‌, भवेयुः; भकझयाम, भवेयम्‌ ; भव-यात्‌, भदेत; भव-यातम्‌, भवेतम | . ८। अकार के ओर उ, नु इन दोनों आशर्मों के परस्थितं हि विभक्ति का छोप होता है (६) | यथा, भव-हि, भव; कुरू- हि, कुछ; शणु-हि, श्णु | छु अन्य वर्ण के साथ संयुक्त रहने से हि विभक्ति का छोप नहीं होता । यथा, आप्नु-हि, आप्जुहि । পপ পপ পরপর 1 पिके तुदादिश्च हघादिश्च तनक्रयादिन्युरादयः ॥ (२) भतो रणे (३) अवो दीर्घो याड । (४) आतो डितः । (८) भरो थेयः । (६) भतो हेः । उतश्च प्रसयाइसयोगपूर्व्बति ।




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