अन्तराष्ट्रीय अर्थशास्त्र सद्धांत, समस्याएँ एवं नीतियाँ | International Economics Theory, Problems And Politics

International Economics Theory, Problems And Politics  by जी. सी. सिंघई - G. C. Singhai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अन्तराष्ट्रीय अर्यशास्त्र-अर्य एवं प्रकृति. 3 लगे 1 किन्तु इसका तावं यद्‌ नही है कि अन्तर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र का युग समाप्त हो गया। आवश्यक मगोधन के साथ अन्तर्राष्ट्रीय आधिक सम्बन्धों में तेजी से वृद्धि हुई हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में परिवर्तन के साथ विभिन्न राष्ट्र की आथिक स्थिति में भी पदि वतन दमा । प्रारम्भ मे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का नेतृत्व ब्रिटेन के हाथ मे था वयोकि औद्योगिक ऋन्ति का अगुआ होने करै नाते विश्व ॐ अनेक देशो में उसका निर्यात बाजार फैला हुआ था। किन्तु प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थितियों में परिवर्तत हुआ तथा इगनेण्ड के हाथ म अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के नेतृत्व की बागडोर निकल गयी सौर अमेरिका ने अग्रणी स्यान ग्रहण कर लिया। किन्तु आज अमेरिका के साथ ही विश्व में ऐसे अनेक देश है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र मे अग्रणी है। राजनीतिक परिस्थितियों के भी व्यापार के स्वर्ण में विशेष पसिवितंव किया है । प्रारम्भ में पूंजीदादी व्यवस्था ने इगनैण्ड का व्यापार बढाने मे पर्याप्त महायता की क्योंकि विश्व के बहुत से देशों मे पूंजीवाद का प्रभावें था। किन्तु आज विश्व प्रमुख रूप में पूंजीशाद मौर साम्यवाद दो सेमो में बेंठा हुआ है जिसके कारण अस्तर्राष्ट्रीय व्यापार भी विभिन्न क्षेत्रों में बेंट गया है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धो की एक दूसरी विचारधारा का जन्म हुआ है। राजनीतिक उद्देश्यों मे प्रभावित होकर व्यापार के क्षेत्र मे बई क्षेत्रीय गुटों का जन्म भी हुआ तथा सम्बन्धित देशों का व्यापार एक विधिष् क्षेत्र तक ही सिमट केर रह गया। इस प्रकार बदलती हुई राजनीतिक एवं जन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की परिस्थितियों ने विभिन्न आधिक समम्याधो को जनम दिया है जिनका हम आगे पृष्ठों में अध्ययन करेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय आथिक समस्‍्याएँ (মাগার ঞযা0২5,500বগেগা0 শং00-55) बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई आधिक समस्याओं को जन्म दिया है जिनमे मुए्य समस्‍्याएँ इस प्रकार है-- (1) क्षेत्रीय बाजारों को स्थापना--प्रास्म्भ में विभिन्न राष्ट्रों के बीच स्वतत्मतापूवेक व्यापार होता पा लेकिन द्वितीय विशवयुद्ध के पश्चात कई क्षेत्रीय बाजारों का निर्माण हुआ । इसके पीछे मुख्य कारण कषेत्रीयता की भावना एवं कुछ देशो के हितो का ममान होना है। उदाहरण के लिए पश्चिमी यूरोप के 6 राष्ट्रो ने (काम, जमनी, इटली, वेत्मियम, নীতি জে লবপবন), 1 अनवरो, 1958 को एक सन्धि पर हस्ताक्षर कर यूरोपीय साझा वानार (पणो (०पफणा ४11८) का निर्माण किया । जिसके अन्तर्गत इन देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओ को एक आर्थिक इकाई मे परिवर्तित कर लिया । इनका प्रारम्भिक उद्देग्य बदते हुए विशिप्टीकरण और श्रम-विभाजव के लाभो को प्राप्त करना था। यूरोपियव साझा वाजार को अपने उद्देश्यों में पर्याप्त सफलता मिली जिमसे प्रभावित होकर अन्य राप्ट्रो ने भी ऐसे क्षेत्रीय गुटों का निर्माण किया । यूरोपीय स्वतन्त्र व्यापार सध >. 3, #०पराणा চাপা) का निर्माण किया गया ज़िममे यूरोप के वे देश शामिल हुए जो यूरोपीय साझा बाजार में सम्मिलित नहीं होना चाहते ये । इसे निर्मित करने में ब्रिटेन ने पहल को व्योकि उसे भय था कि पुरोपीन साझा বালান के कारण उसके हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस संघ के सदस्य मात देश थे--ब्विटेन, भास्ट्रे लिया, डेलमार्क, नादें, पुतंगाल, स्वीडन एवं स्विदजरपरैण्ड। इसका प्रमुख उद्देश्य सदस्य देशों के लिए तटकरों (1) को हटाना था। वाद मृ विटेन, पुरेषीय साझा बाजार में शामिन हो गया । अपने लाथिक তিতরী को वृद्धि करने के उद्देश्य दे दक्षिण पूरब एशिया के देशो मे भी एक साझा बाजार स्थापित कले रौ योजना विचाराधीन रै दो गूरोपीय साझा बाजार के समकक्ष हो होगा । इल क्षेत्रीय गुटो के निर्माण का प्रभाव यह हुआ है कि जो राष्ट्र इनके सदस्य नहीं हैं




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