कसायपहुडं | Kasaya Pahudam

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : कसायपहुडं  - Kasaya Pahudam

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

No Information available about पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

Add Infomation About. Pt. Kailashchandra Shastri

फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

No Information available about फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

Add Infomation AboutPhoolchandra Sidhdant Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ९ $ १४, सामित्त दुविहं--जहण्णम्रुकस्सं च । उकस्सए पयदं | दुविहों णि०--- ओषेण आदसे० । ओषेण मोह ° उकस्सिया पदसविहत्ती कस्स १ जो जीवो बादरपुटविकादएसु वेहि सागरोबमसहस्सेहि सादिरेएहि ऊणियं कम्मट्विदिमच्छिदाइओ० ,एवं वेयणाएं बुत्तविहणेण संसरिदृण अधो सत्तमाए पुढवीए णेरहएसु तेत्तीसंसागरोवमाउट्विदीए सु उववण्णों १ तदो उव्बद्विदसमाणों पंचिंदिएसु अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो तेचीससागरोबमाउ- ट्विदिण्सु णेरहणएसु उबवण्णों | पुणो तत्थ अपच्छिमतेत्तीससागरोबमाउणिरयभवर्गहण- अंतोगुहुत्तचरिमसमए वड माणस्स मोहणीयस्स उकस्सपदसविहत्ती । एत्थ उवसंहारस्स वेदणामंगो । ये दो ही विकल्प सम्भव हें। जघन्य प्रदेशसत्कर्म तो क्षय होनेके अन्तिम समयमें होता है इसलिये उसमें सादि और अध्रव ये दो ही विकल्प सम्भव हैं. यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार उत्कृष्ट ओर उसके पश्चात्‌ होनेबाला अनुत्कृष्ट भो कादाचित्क है, इसलिये इनमें भी सादि और अध्रव ये दो विकल्प ही सम्भव हैं । यद्द तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर चारों गतियाँ अलग-अछग जीवॉंको अपेक्षा कादाचित्क है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट आदि चारों पद्‌ सादि ओर अध्रुव होते है । अन्य मार्मेणाओमे अपनी अपनी विशेपना जानकर उत्कृष्ट आदिके सादि आदि पदोंकी योजना कर लेनी चाहिये! § १४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य ओर उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका हे--ओघ ओर आदेश । ओघसे सोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो जीव बादर प्रथ्रवीकायिकोंमें कुछ अधिक दो हजार सागर कम कमस्थितिभ्रमाण काल तक रहा । इस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें कहे गये विधानके अनुसार श्रमण करके नीचे सातवीं प्रथिवीके ततीस सागग्की आयुवाले नारकियोमें र्यन्न हआ । उसके बाद्‌ वसे निकर कर पच्चन्द्रियोमें अन्तमुह॒न काछ तक रह कर पुनः तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार तेतीस सागरकी आयुवाले नग्कमें अन्तिम भत्र ग्रहण करके जब वह जीव उस भवके अन्तिम अन्तमुंहतमे वर्तेमान होता है तो उसके चरिम समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । यहाँ उपसंहार वेदनाअनुयोगद्वार्के समान जानना चाहिये । विरोषाथं--उच्कृ प्रदेशविभक्तिका स्वामी वही जीव हो सकता है. जिसके अधिकसे अधिक कमप्रदेशोका संचय हा । एला संचय जिस जीवको हो सक्ता है उसीका कथन य्ह किया गया है। खुलासा इस प्रकार है--जो जीव वाद्र प्रथिवीकायिकमें चरस पयायकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो हजार सागर कम कमस्थितिप्रमाण काल तक रहा। वहाँ रहते हुए बहुत बार पर्याप्त हुआ और थोड़ी बार अपयाप्त हुआ। तथा जब पर्याप्त हुआ तो दीरघायु बाला ही हुआ और जब अपर्याप्त हुआ तो अल्पायुबवाला ही हुआ। ये दोनों बाते बतछानेका कारण यह है कि अपर्याप्रके योगसे पर्याप्रका योग असंख्यातगुणा होता है और योगके असंख्यातगुणा होनेसे पर्याप्तक बहुत प्रदेशबंध होता है । तथा जब जब आयुबंध किया तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे किया, जिससे मोहनीयके लिये अधिक द्वव्यका संचय हो सके। तथा बारम्बार उत्कृष्ट योगस्थान हुआ ओर बारम्वार विशेष संक्िष्ट परिणाम हुए। इस प्रकार बादर प्रथिवीकायिकोंमें भ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। यर्ययाप स्थावर पर्यायका निषेध कर देन से ही सूक्ष्मत्वका निषध हो जाता हे क्योंकि स्थावर पर्यायके सिवा अन्यत्र २




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now