कसायपाहुडं | Kasaya Pahudam
लेखक :
पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri,
फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri
फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
385
श्रेणी :
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पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri
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फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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कारण स्पष्ट हैं शेष रहो वक्रियिक काययोस, वक्रिथिक मिश्रकाययोग, आहारककाययोग, शाहारकमिश्र
क्ययोम और कामणकाययोग मार्गगाएँ ऋमत्थिति काकृके भीतर अबद्य ही होती हैं ऐसा कोई नियम
नही है, इसलिए इन मार्गणाओम बांध गये कम इस क्षपकके भजनीय कहे हैं ।
१८९ सख्याक तीसरी भाष्यगाथाम यह स्पथ्ट किया हैं कि मतिज्ञान और धुतज्ञान हन दोषों
उपयोगोंमे बाँध गय कम इस क्षपक्र के नियमसे पाये आत हैं। इन्हीमें मत्यश्ञान और श्रुताज्ञानकों भी
सम्मिलित कर लेना चाहिये । कानणस्पष्टह् । किन्तु अवधिज्ञान भौर मन पययज्ञान साथ ही विभगशान
कमस्थिति कालपे भीतर हां एसा बाई नियम नही है, इसलिए इन मार्गणाभोमे बधि गये कम दस क्षपकके
भजनीय वहा है ।
१९० सद्याक चौथी भाष्ययाथाम स्पष्ट किया है कि चक्षुदशन और अचक्ष॒ुदशस इन दोसों उपयोगोंगें
धाँध गये कम दस क्षपकके सियमसे पाये जात हैं। पर यह स्थिति अवधिदश्न की नहीं हु, इसलिए इस
उपयोगमें बाँध गये कम इस क्षप+्रके भजनीय होते हैं यह कहा है ।
भारे १९१ संरूपक्र छठवी मूल गाया है । इसमें बतलाया हैँ कि किस लेइयाभे, किन कर्भोंमे किस
क्षत्रमें और किस कालमे साता अमाता और जिस लिगके साथ बधि भये क्म ईस क्षपकके पाये जाते हैं ।
इस प्रकार इस मुलगायाद्वारा पच्छा वी गई हू ।
आग उत्तरस्वरूप इसकी दो भाष्यगाथाए हु । उनमेंसे १९२ सश्याक प्रथम भाष्ययाथ/म बतराया
है कि सभी ले-याओम तथा साता और असातामे पृवबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे होते हैं, क्योंकि
तियञ्चोी और मनुष्योफ इनका सदभाव पाये जानेमे कोई बाघा नहीं आती। अस्तमुहूर्तमें ये बदलते
रश्त हु। तथा सभी कार्यों भोर सभी लिगोमें बाँध गये कर्म इस क्षपकके पाये भी जाते है और नही भी
पाय जाते क््याकि कर्ष स्थिति कालके भ्रीतर इस जीवके ये नियमसे होते ह ऐसा कोई नियम नहीं है । यहाँ
क्मसे अगारकम , वष्ठकम और वनक्म किये गये है । तथा छिगसे तापस आदि अन्य छिग लिये गये है ।
व कमस्थितिकाल्के भोतर इस जीवके नियमसे होते हू एसा भी कोई नियम सही है । इसलिये यहां सभी
कर्मों और समी लिगोमे बाधि गये कमं षस क्षपकके होत भी हैं मौर नहीं भी होते हैं, यही बात शिल्पके
सम्ष धम भी जाननी चाहिय। यहाँ यो लिंग पत्से सभी लिगका ग्रहण किया है तो निग्र थता कोई लिंग
नही है वह ता वक्रा स्वल्पह, दसट्यिल्गि पदसे यहाँ निम्न थ लिगवा ग्रहण नही होता ऐसा यहाँ
समक्षना चाहिय । क्षञ्र परमे अधालोक आदि तीतोका ग्रहण होता है । सो यहाँ अधोलोक और, क्रध्यलोककी
अपेक्षा मजनीयता ननी च।हिय । क्योकि कोऽ जीव तियक लाकमें परे कमस्थितिकालतक रहकर अम्तम
क्षपक होकर मोक्षवासी व जाय, ईन दोनों छोकोमे ने जाय इसलिये इन दोनो क्षेत्रोम बॉधे गये कम इस
क्षपकके भजवाय उह₹ हूँ । इसो प्रत्रार उत्सपिणी और अवसपिणी कालती अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए ।
विशेष वबत ये ने होनसे हम यहाँ स्पष्टी रण नहीं कर रह हैं ।
१९३ सस्पाक द्री भाष्यगाधथामं बतलाया गया है कि जिन तीन मुलगाथाओमें अभजनीय पूचबद्ध
कर्मोकों चर्चा बर आय है व इस क्षपकके सभी स्थितियोम सभो আনুমামাম और सभी इृष्टियोम नियमे
पाय जात हैं एसा यहाँ समझना चाहिये ।
भागे १९४ सरूयाक सातवी मूल गाथामें दो पुष्छाएँ की गई हैं । प्रथम यह पछा की गई है कि एक
एक समम्रप्रधउसम्ब धो कितने कमपरमाणु सदयकों न प्राप्त होकर कितने स्थितिके भेटोंप्ें और कितने
अनुभागोमें इस क्षपव के पाय जात हू । तथा दूसरी पृष्छा यह को गई है कि एक एक भवपें बॉघे गये कितने
कम उदयकों प्राप्त हुए बिना इस क्षपक्रके पाये जाते हैँ। इसप्रकार ये दो पुण्छाएँ हैं जो इस मूलगायाद्वारा
की गई है ।
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