माधुरी | Madhuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब ॥ नाध, ३०४ तुर सं० ] अद्देतवाद (गतांक से श्रगे) जुर्बेद के ११व अध्याय के ६६वें मंत्र में “आसुरी साया! शब्द आया है। इससे शायद বা অলক কি হালা के छु्ताये का वर्णन है। इस अम को दूर करने के लिये हम मंत्र का श्रथ देते दै-- हस्य देवि पृथिवि स्वस्तय श्रापुरी माया स्वधया कृताति ! जष्टं देवेभ्य इदमस्तु हव्यमरिष्टा लपुदिहि यज्ञे श्ररिमन्‌ । (यज्ञ ११। ६६ ) इस पर उठ्वट का भाष्य है-- यत आसुरी माया । असुः प्राणः | रेफ उपजनः | সাহা सम्बन्धिनी साया प्रज्ञा) अर्थात्‌ प्राण-संबंधो प्रज्ञा या ज्ञान का नाम आसुरी माया है । महोधर लिखते हैं--- करमात्व मिदमुच्यसे स्वधयानेन निमित्तेन लमातुरी माया সাহা सम्बन्धिनी प्रक्षा कृतासि | ब्रसूनां प्राणानामियमासुरी | यद्वा च्रसुरसम्बन्धिनी माया अचेन्त्यरचनारूप चित्र वस्तु भूता यद्वत्‌ प्रतिभाति तद्वत्‌ छमपि स्तनरचनागृक्ता निष्पन्ासीत्यथः | इससे विदित होता है कि यद्यपि महीधर भी उध्वट के सदश साया का ক্ষ “अज्ञा? करते हैं, तथापि उनके भाष्य में 'राक्षसी माया? की भो कुछ छूटा हैं; परन्तु इसके लिये उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया । माया का प्रक्षा अर्थ करने में, तो निरुक़ का भी प्रमाण है, और डब्घट का भी जो महीधर से पुराने भाष्यकार हैं | * “आसुरी साया! शब्द १३ेवें अध्याय के ४४वें मंत्र में भी आया है वरूत्रीं खष्टर्वरुणस्य नाभिमविं जज्ञाना रजसः परस्तात्‌ । मही ९, साहघीमप्रस्य मायामग्ने मादि सीः परमे व्योमन्‌ । ( यञ्वेद १३ | ४४) यहाँ “माया, के दो विशेषण है । एक “मही” ओर दूसरी 'साहस्री”', और “अर्निदेव” से प्राथंना की गई है कि आप इस “महाँ?, 'साहरखों”, “असुरस्य” और “माया! का नाश न कोजिए । स्पष्ट है कि यदि इसमें राक्षसी माया, का खोकबाद के समान कुछ भी लवक्तेश होता, तो उसकी হাউজ द्‌. & रक्षा की ग्राथना कभो न की जातो । इस पर उच्चट কিন ই महीं महतीं साहसीं सहस्रोपषकारकत्तमाम्‌ । अपछुरस्थ झसुवतः प्रायावतः प्रज्ञानवतो वा वरुणस्य मायां प्रक्ष हैँ अग्ने, मा हिंसी:। | भर्थात्‌ “मही? नाम है “बढ़ी? का । (साहसी का भरं है “अनेक उपकार करनेवाली । ( यष याद रखना चाहिए कि “माया? को वुल या कपटमयी माया या अविद्या नटीं माना गया ; परेतु उसको “सहस्रा उपकार करनेवाली, बताया गय! है । न इसको गौद्पादाचार्यं को वेद्‌त-संबधी (मायाः के रथम किया गया है। क्योंकि वेदांती “माया? से उपकृर नहीं, किंतु अपकार हीः होता है )। “असुर” नाम है प्राणवाले या ज्ञानो का, और साया का अथ है प्रज्ञा! या बुद्धि । महीधर ले भी इसी को दुहराया है, जैसे-- अ्रपुरस्य मायाममवः प्रणा वियन्ते यस्य सोऽनु सखये रः | प्राणवतो मायां प्रतं मीयते ज्ायतेऽनया माथा प्रज्ञा प्राखिनां प्रज्ञाप्रदामित्यथः । यहाँ महीधर ने, यह भी दिखा दिया कि “प्रज्ञा! को “माया! क्‍यों कहते हैं । श्रर्थात्‌ जिसके द्वारा “मीयते”, ज्ञायते! या ज्ञान प्राप्त होता है, उसका नाम है माया यहाँ “माया! को प्रज्ञाप्रदा! कहा गया है । प्रज्ञाप्रदा या बुद्धि देनेवाल वस्तु कदापि अ्रविद्या नहों हो सकती । ইল अध्याय के रेवं मत्र आया है--- पञ्चस्वन्त: पुरुष श्राविवेश तान्यन्तः पुरुषे श्रार्पिताने | सत« त्वात्र प्रतिभन्‍वानो आस्मि न मायय।भवस्युत्तरो मत्‌ ॥ ( यजुबेंद अ० २३ सं० ५२ ) इसकी व्याख्या करते हुए महीधर ने-- किंञ्च मायया बुङ्या मत्‌ सत्तः उत्तरो ऽथिकर्तवं न भवासि । मत्तो बुद्धिमान्नासीत्यथ: । মাহা? কা श्रथं “बुद्धि! किया है । ३० वें अध्याय के ७ वे मंत्र में--- मायायै कर्मार ? से भो लुहार की विशेष विद्या का ग्रहण किया गया है । स्वामी दयानंद 'मायाये! का अथ करते हैं “प्रशावद्ये”” अथोत्‌ ज्ञान बढ़ाने के किये । ৯ सें मायया' शब्द




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