नियमसार | Niyamsaar

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Niyamsaar  by बी. सीतलप्रसाद - B. Seetalprasaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ नियमसार- पग्राचाय ने यह दर्शाया है कि उपासकों को योग्य है कि ऐसे भ्रहेन्‍्त को ही आप्त, देव पूज्य माननीय सकल परमात्मा परम सुखी प्रौर दर्शन बंदन योग्य समर्कझे। नियमसार से प्रयोजन यह है कि सम्यरद्श न, ज्ञान चारित्र रूप जो नियम उमका सार भो शुद्ध रत्तत्रयस्वरूप प्रात्मा तिसका ध्यार्प्रान कहूगा। बह प्राचाय की प्रतिज्ञा है । केसा है नियमसार ? जिसको सकल प्रत्यक्ष केवल ज्ञान के भारी भौर समस्ते द्वाद्शांग रूप द्रव्यश्नुत के कहने से पारगामी ऐसे श्रुतकेवली कह चुके हैं इस वाक्य से ग्राच य॑ ने यह दर्शाय्रा हैं कि मैं जिस परमात्मा को कहूंगा, वह भ्रपनी मनोक्ति से नहीं कहूंगा, किन्तु जेप्ता मेरे गुरुदेव ने प्ररूषण कि या है उसी के ग्रनुसार कहूगा । यह निममसार परमागप ममस्त भब्य जीवों के समूहों का हितकारी है। इस तरह श्री कुदकुंदाचार्यदे व ने श्रषने इष्ट देवता की स्तुति करके प्रतिज्ञा की है । टीकाकार कहते हैं कि इस जग में श्री महावीर स्वापी जयवरन्त हो कंप हैं स्त्रामी ? जिन्होने अपने शुद्ध भावो के द्वारा कामदेव का नाश किया है, जो तीन लोक के मनुष्य मेंपूज्प है, जिनके पास पूर्ण ज्ञाम का एक राज्य है, जितको देवों के समान नमन करते है, जिन्होंने संसार व॒क्ष के बीज राग-द्वेष को नष्ट कर दिया है, जो केबल ज्ञान दर्शनादि लक्ष्मी के निवास है तथा जो समवदरण में विरजमान है । मोक्ष सार्मतत्फलस्वरूप निरूपषणोपन्यासो5यम्‌ :-.. 7 ~+ 7 मरगो सरग फलंति य दुविहं जिणसासणे ससक्खादं । मग्गो मोख्छै उवायो तस्स फल होइ णिव्बाणं ॥ २ ॥ | केक




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