भगवान ऋषभदेव | Bhagwan Rishabhdev
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
148
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पूवं कथन ] [ ২
कालका परिमाण चार कोड़ाकोड़ी सागर, दूसरे कालका परिमाण
तीन कोडाकोड़ी सागर, तीसरे कालका परिमाण दो कोड़ाकोडी
मागर, चये कालका परिमाण बयालीस हजार वषं कम एक
कोड़ाकोडी सागर, पांचवें दुषमा श्रौर द्ठे दुषमादुषमा कालका
परिमाण इक्कीस-इक्कीस हजार वषं ह । इस तरह दस कोड़ा-
कोडी सागरका अवसर्पिणी काल शरोर दस कोड़ा कोड़ी सागर-
का उत्सर्पिणी काल होता दे । इन दोनोको मिलाकर एक कल्पकाल
होता है, जो बीस कोडाकोड़ी सागरका है ।
भोग-भूमि
भूमिम শে [)
एक समय इस भारत- अवर्सापणीका पहला भद
सुषमासुषमा नामक काल छाया हुआ था। उस समय यहाँके
मनुष्योंके शरीर बजे समान सुरद होते थे, तपाये हुए सुवर्णके
समान उनकी कान्ति थी, आक्ृति अत्यन्त सौम्य थी। सबके
सब वड़े वलवान् , बडे धीर-वीर, बडे तेजस्वी, बडे प्रतापी, बड
सामथ्यबान् और बड़े पुण्यशाली होते थे। उनके धक्षस्थल
बहुत विस्तृत, कद् लम्बे श्रौर श्रायु भी लम्बी हाती थी।
उस समयकी सियो भी पुरुषोके समान ही शरीरम सुद,
कदमे लम्बी ओर आयुमे समान होती थी। खिर्यो अपने पुरुषोमे
अनुरक्त रहती थी ओर पुरुष अपनी खियोमे अनुरक्त रहते थे ।
खी ओर पुरुषका प्रत्येक युगल ऐसा शोभित होता था, जैसे
कल्पवृक्ष और कल्पलता | प्रत्येक युगल জীনল-ঘতল্ন बिना
किसी क्केशके भोगोका उपभोग करता था।
उन्हें न कोई परिश्रम करना पड़ता था, न कोई रोग होता
था, न मानसिक पीड़ा होती थी ओर न अकालमे उनकी मृत्यु ही
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