समुन्द समाना बुंद में | Samund Samana Bund Me
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
202
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रूपान्तरण--उसके जीवन मे आमूल क्रान्ति | फिर भी, उनमे ते तो महत्त्वा-
काक्षा है और न सफलता की कामना । कृष्णमृति की तरह रजनीक्ष का खयाल
है कि सुखी आदमी ही धार्मिक आदमी. द्ोता दै.और. उस्तदा--डीदद ही. पमाज-
सेवा है। भारत के भिखमगे तब तक धामिक न होगे जब तक वे सुखी न
हो, परन्तु साथ ही स्मरण रहे कि धन-सम्पत्ति के अबार हमे सच्चा सुख
प्रदान नही कर सकते ¦ सम्पत्ति का बैटवारा भौ नितान्त आवश्यक टै ओर
सारे देश, सारी पृथ्वी और सभी जीव-जन्तुओ को सुखी करना है। आचायंजी
बारबार इस बात पर बल देते है कि महत्त्वाकाक्षा, चाहे वह पाथिव हो या
आध्यात्मिक, दुखो की जननी है, उससे तरह-तरह के भय उत्पन्न होते है।
जिसे सरलता, स्पष्टता, ऋजुता और बुद्धिमत्ता आदि गुण प्रिय हो, उसे चाहिए
कि वहू अपने दिमाग से सभी महत्त्वाकाक्षाओं को निकाल फेके और एक ऐसे
परिवेश वा निर्माण करे जिसमे किसी प्रकार का भय न हो । परम्परा का
भय, समाज का भय, पति अथवा पत्नी का भय, पडोसियो का भय, मृत्यु का
भय, नौकरी जाने का भय--इन सबसे आज का जीवन आक्ान्त है, सब-के-्सब
करिसी-न-किसी भय से भयभीत है । इस कारण ससार मे मानो वृद्धिका लोप
हो चला है। जीवन में सुख की उपलब्धि उन्हे होती हैजो एक रसे परिवेश
मे जीवन-यापन करते है जिसमे भय की जगह स्वतत्रता का वातावरण होता
है। यह स्वतत्रता स्वेच्छानुकूुल आचरण करने की स्वतत्रता नही होती, अपितु
जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने की स्वतत्रता होती है ।
आचार्य रजनीश जीवन को कुरूप नहीं मानते । इसके असाधारण सौन्दर्य
और इसकी गहराइयो का एहसास आपको तभी हो सकता है जब आप धामिक
सम्थाओ, रूढियों और आज के सड्े-गले समाज के बन्धनों से मुक्त हो जायें
और मनुष्य के रूप में इस बात का पता लगाएं कि सत्य कया है। खोजना,
पना लगाना ही शिक्षा का लक्ष्य है, न कि अनुकरण करना। समाज, माता-
पिता और शिक्षक के आदेशों के अनुसार आचरण करना अत्यन्त सरल है।
जीने का इससे आसान तरीका और वया हो सकता है ” परन्तु आाचायंजी
के मतानुसार ऐसे जीवन को जीवन नहीं कहते । जीवन तो वह है जिसमे किसी
प्रकार का भय न हो, जिसमे हास और मृत्यु का आतक ने व्यापे। जीता
वह है जो इस तथ्य का अन्वेषण करता है कि जीवन वया है बौर ऐसे अन्वेषण
मे कोई तभी प्रवृत्त होता है जब उसके जीवन में स्वतश्नता होती है ।
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