वैरागी | Vairagi

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Vairagi by सरत चंद्र चट्टोपाध्याय - Saratchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वैरागी রা এ श्र दरवाजे की आड़ में खड़ा -. होकर धीरे से बोला-तिरे डर के मारे. हट जाऊंगा यंदि मैं वहाँ जाऊँगा तो तू मेरा क्या विगाड़ लेगी !' कुसुम ने कोई जबाव नहीं दिया । चिराग की बत्ती तेज कर ` वह्‌ फिर सीने लगी । आड़ मे खड़े कज की हिम्मत फिर बद्‌ गई । उसने अपनी झावाज कुछ और तेज करके कहा-'कृहते है, कृत्ते को दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है । अपने: डायन-सी चिल्लायेगी. तो कोई हर्ज नहीं और मैं तनिक जोर से बोल दूं तो... | यह कह कर कंज रुक गया । परन्तु जब इसका भी प्रन्दर से कुछ प्रतिवाद नहीं हुआ तो वह मन ही मन बहुत संतुष्ट हुआ । जाकर वह अपना हुक्का उठा लाया श्रौरश्रपने गले कीभ्रावाज ` कुछ तेज करके कहा-जब मैं बड़ा हूं, घर का मालिक हूं तो सब काम मेरी मर्जी से होगा । | यह्‌ कह कर कज ते वह्‌ जली हूरई चिलम उलट दी और फिर से तम्बाकू चढ़ाते २ जोर से बोला-'किसी की बात सुनने की मुझे जरूरत नहीं, मैं वार २ नहीं! नहीं सुन सकता । जब मैं घर का भालिक हूं, जब धर-बार सब मेरा है तो मैं जो कहूंगा, वही***' संहसा उसेने पीछे पैरों की आहट सुनी और जब घूम कर देखा तो चुप रह गया । चुपचाप आकर कुसुम तेज निंगाह से उसकी ओर देखती रही । उसने कहा-- बैठे-बैठे तुम कलह करोगे या जाओगे यहाँसे ?' छोटी बहिन की इस तेज निभाह के सामने बड़े भाई के मालिक बनने का सारा होसला जाता रहा । उसके मु ह से जल्दी कोई बात ही नहीं निकली । कुसुम ने फिर उसी तरह कहा--' दादा, बताओरो, यहां से जाओगे या नहीं ?' अब नतो वह कुजनाथ रह गया था और न उसकी वह श्रावाज भर्राई आवाज में उसने कहा-- हुक्‍्का चढ़ाकर अभी जा रहा हूं ।'




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