देहशिल्पी | Dehsilpi

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Dehsilpi  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देहशित्पी १४ पुलिया के रेलिंग से पीठ टिका कर खा लिया। अब क्या करें ? क्षाज तो बस ऐसे क्षिसों की राह में थँसे विद्धाये बैठे रहता है जो राह सुकावे ! कोई भी, कैसा भी आदमी 1 र सोचने-सोचते हँस पथ । इन्दी आदमियों सेदुरवानै कैति हीतो लोकालप छोड-छाठ कर भाग निकला था न ! मगर कहाँ था कोई आदमी ? इधर-उधर निगाह दौडा कर लगा कि प्राणि- যন বানা वह कही चला आया है। ऐसा लगा कि चारों ओर से प्राण- हीन पहाड़ों की अभेद्य प्राचीर से घिर गया है, ऐसे पहाड जिन पर फैले हैं निःशब्द घने जगल 1 प्रास्ों का स्पन्‍्दत किसी और भी नहीं । शब्द के नाम प्र पुलिया के बहुत नीचे से बहते करने का दबा-दवा गर्जन । सहसा किसी अनदेसे अन्तशल से हँगी की लत्राती भंकार उस तक भा पहुँची | परिवेश क्षण भर में पूर्णात: बदल गया । गगी, वेजान भ्रकृति वाणी से, সায়া से मर गई । कृष्णन को लग्रा कि अब तक जो ऊत देने वाली पटाद और पेढो की भीड थी वही सहमा वर्डसवर्थ की एक भूलो-बिसरी कविता में बदल गईं | शायद ऐसी ही किसी जन-मानवहीन पहाड़ की थोद में, अरण्य की छाया मे, दूर से सुने किसी मधुर कण्ठ-स्वर के आधार पर ही जन्म लिया था उनकी 'धूसी ग्रे” ने । पुलिया की थाई तरफ जो पहाड़ सीधे ऊपर उठ गया है उसी के विगी मोढ़ की জার से पतली पगडण्डी से होती हुई धीरे-धीरे सामने आईं वो नारिमां । जो आगे थी उसको पोठ से एक “डोका' लटक रहा था। सामने को काफी भुक कर उसे उतरई उतरता पड़ रहा था | जो पीछे थी उसकी पीठ पर कोई बोक ते था । इस कारण, इलान पर चलते समय णरीर का जितना भुकनां आवश्यक है उस पर ध्यान न देने से, लगता था उसकी गति पूर्ण ८प से अवाध ओर स्वच्छन्द है । उतर कर और कुछ आगे आकर घुमाव के आगे पढ़े पत्थर पर जब वह सीधी खडी हो गई, उसका सम्रूचा अवयव पूर्सा रूप से खिल उठा। कृष्णन देसता ही रह गया 1 अपने अनजाने ही बह वोल पढा, “वाह 17 इतना सुन्दर, इतना दोपरहित, ऊपरी अंगों का ऐसा सुसम विन्यांस उसने पहले कमी न देखा था। मुग्ध एकाग्र दृष्टि से कप्णन उसे देखता रहा । उसे गहे भी ख्याल न रहा कि वह युवती है, उसको ओर इस प्रकार देखना अशालीनता है । बहुत कुछ इससे मिलती-जुलती छवि उसने एक वार देखी थी वीरमभूमि में मगर वह परिवेश इससे बिल्कुल भिन्न था। वर्षा शुरू हों छुकी थी! सेतों मे बोने का काम शुरू हो गया था। ऊंचे आल बंधे सेतों में घुटने भर कीच में खडी चार सन्‍्याल रमणियाँ घान के पौधे वो रही थी। जल्दी-जन्दी चलते उनके हाथों की गति निहारनते-निहारते चला जा रहा या हृष्णव এ




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