रस और रसास्वादन | Ras Aur Rasaswadan

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Book Image : रस और रसास्वादन  - Ras Aur Rasaswadan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श हमारा दशिोश पूजन से कछा का आरम्भ होता है। यह केलछकारका दत्रहै। करा की 'सृष्टि' को सुन्दर वस्तु कहते हैं। इससे “रस' का उदय होता है | सृजन, सृष्टि और रसोदय--ये कीनों एक ही व्यापार के आदि, मध्य ओर यवसा द, मनौ एक ही कः के तीन क्षण--अतीत और अनागव जो विद्यमनन में आकर मिलते हैं। बह कालः स्वयं महाकाल का एक उच्छुवास'ः होता है। इतिहास ही महाकाल है; गति और विकास इसके लक्षण है । इतिहास कला-विवेचन की आधार-शिला है, और साथ ही, महत्त्वपुर्ण दृष्टिकोण । किन्तु हम महाकाल से पुथक्‌ होकर भी क्ल्य की करई समस्याओं पर विचार करते हैं। 'यूजन' कला-मीमासा के सि रहस्य ओर ममं है, और विवेचन के लिये उपयोगी विषय । कछा की सुन्दर चुष्टि का स्वतंत्र अध्ययक्त भी आवश्यक है, जिससे “रूप” के কনা का बोध सम्भव होता है । “रूप' के विधान, इसके अ्तानिहिंत तत्त्व तथा रुप-बोध की क्रियाये, स्थातू, सौन्दर्य के रहस्य का उदुघाठन कर सके ! किन्तु 'सृजन”ः और सृष्टि' दोनों का गन्तव्य लक्ष्य रसिक मै रख का उस्मेष करता है| “रस' स्वर्य जदआुत अनुभूति' है। प्रस्तुत प्रबन्ध का उद्देंग्य इसी “अनुभृत्ति' के भर्म वक्त पहुँचना है। 'रसाध्वादव” उस च्यापार দয নান है जिसका फल रस की अनुभूति है। अवएब इस प्रबन्ध का नामकरण भी “रस' और 'रसास्वादन' किया गया है ॥.. रसानुमृति एक 'ठब्य' है, मातिसके जगतु की एक रोचक घटला { यह्‌ सथ्य हमारे अध्ययत्त का आवार हैं । पश्चिसी और भारतीय परम्परा के




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