साहित्य क्यों? | Sahitya Kyon ?

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Sahitya Kyon ? by विजयदेव नारायण साही - Vijaydev Narayan Saahi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प साहित्य क्यों ? सर्जनात्यक मानस' विश्व साहिव्य' के दबाव को महसूस करता है--लेकिन आदर्श क तरह ! एक आदर्श का विकल्प दूसरा आदशं ह । दुमरे महायुद्ध के बाद की परिस्थिति ने, जो भारतवर्ष के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के घाद की स्थिति भी है, इस तस्वीर को बदल दिया। युद्धोच्तर परिध्थिति गोरी सभ्यता को एक पूर्णतः सिभित वस्तु की तरह नहीं, वल्कि एक ऐसी वस्तु की तरह प्रस्तुत करती है जिसमें ठहराव नहीं है। उसमे | ऐसे पश्चिर्तन है जिनकी कहपता भी पहले नहीं को गयो की | इस बिंदी हुई या बदलती हुईं परिस्थिति में चेतता पर “দিও साहित्य” की अवधारणा का दंदाव दिष्लवी बनकर पठता है--समसापयिक, निरन्तर बदलता हुआ-- कुछ ऐसा जो खास अर्थों में बीखवीं शताब्दी के बाम से अभिष्ित | किया जाता है। इस बीसवीं सदी को एक सर्वशान्य नामकरण की तरह महसूस किया गया-- उस समस्त संपुंज के लिए जिसमे तूफात और भूकंप है, विज्ञान और यांत्रिकी की चुनौतियाँ हैं, समाज को अमल बदल डालने के ('निमित्त प्रयोग हैं, औसत आदमी की जिंदगी को नये सिरे से हालने के सपने | हैं, बड़े पैमाने पर उत्पादन है, महानगर हैं, भिरन्तर उठते हुए जीवन-स्तर है--और इस अभियात के बीच व्यक्ति के म्िजी, परम्परित জা भावुक विश्यासों के लिए कोई जगह नहीं है | संक्षेप में विश्व साहित्य को उस चेतना ने आधुनिक था समधामयिक' की सूद्रा रहण केर ली जिससे हम सब परिचित हैं और साहित्य बीसबीं शताब्दी की লীঘ্রলালা पर निकल पडा] जज हम उस समय मिल रहे हैं जब इस ततीथे-यात्रा के पहले उत्व को बीते हुए काफ़ी कुछ अरसा गुजर गया है। बीसवों शत्ताब्दी ढल' रही है। इसका अवसर आ गया है कि हम थोड़ा तटस्थ हो कर देखें--क्या इस सारे कुहराम में कोई अर्थ रहा है ? इतिहास की इस कभी उत्तेजित, कभी हताश गति में क्या कोई ऐसी रूपरेखा रही है, जो याव किये जाने के योग्य हो ? शीघ्र ही, शायद हम में से वहुतों की जिन्दगी में, इक्कीसवीं शत्ताब्दी की शुरुआत होते ही यह बीसवीं शत्ताब्दी उस झबके लिए पर्याय बन जायेगी जो त्म हो चुका है, मर चुका है-- हमेशा के लिए टूर जा चुका है, उस समय वह बीसवीं शताब्दी कैसी दीखेगी' ? अलग-अलग दिशाओं में खिचती हुई यह चरमशती हुई कोशिशें, यह অলি और प्रत्ति गति, बढ़ते हुए पानी के ऊपर मुँह भिकाले रहमे की छटपटाहट, मनुष्य को मानवीय बनाते की असंभावनता और साथ-साथ व्यापक सजनशील ০




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