प्रतिभादर्शन | Pratibhadarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) सम्बन्ध में भाषाविज्ञानियों में अनेक भ्रमो ने अपना धर बना रखा है। अन्तिम को अवद्य पढ़ लिया जाय ।#* अध्याय ३ में प्राचीन और नवीन भाषाओं के वर्गीकरण पर जो ग्राह्म मतभेद हैं उनकी सच्ची व्याख्या दी है। इसके अनुसार भाषाविज्ञान के किए हुए केन्तुम, शतेम्‌ और वेनेंसे छा, ग्रिम्स छा इत्यादि सिद्धान्त एकदम निराधार सिद्ध हो जाते हैं। इस विषय का प्रतिपादन भी नवीन रूप से, नवीन पूर्ण प्रमाणों सहित पुण्ठ रूप से किया गया है। खाथ में भारोपीय भाषा के जिस काल्पनिक स्वरूप को भाषाविज्ञान ने निर्मित किया है वह भी प्रतिभाद्शन के नियमों से एक थोथी कल्पना सिद्ध हो जाती है। इस बात पर अभी तक किसी ने गम्भीर विचार किया ही नहीं है। ये सब बातें इस खण्ड की अपनी बड़ी विशेषताओं में से है। साथ में शब्दों ओर वाक्‍्यों में जो निरन्तर विकास रूप परिवतंन आते है उनके मौलिक कारणों की खोज इसमें की और दी गई है । वर्णो' की संसर्गीयता से जो विकार आते है उनके कारणों पर भी स्पष्ट प्रकाश डाला गया हैं। अन्त में स्वर संयोग, व्यंजन संयोग सम्बन्धी पहद की स्वतन्त्र ओर वाक्यान्तगंत रूप में परीक्षा करने पर यह निष्कर्ष स्वयं निकल आता है कि जितनी भी भाषायें बोल्चाल की है उनमें वाक्यान्तगंत शब्दों की अधिकांश में सन्धियाँ हो जाती ह । फलतः संस्कृत भाषा की संधियुक्त वाक्यशैलली इस निर्णय को स्वतः स्थापित करनेमे समथं হী जातीहै करि यह संस्कृत भाषा जिसमे सन्धियों का बाहुलय है, वे नकली नहीं--जैसा कि प्रतिभादर्शन के नियमों से अनभिज्ञष, चाहे कोई भी हो समझते आ रहे है--वरंच वास्तविक बोलचाल की भाषा की सच्ची प्रतिमा स्थापित करनेवाली सन्धियाँ है, जिनके फलस्वरूप संस्कृत अवश्यमेव इस रूप मे बोलचारु कीही भाषा रही यहु पृष्टरूप से स्थापित हो जाता हे । + शेष समग्र पुस्तक पाठकों के सम्मुख है, उसके गुणदोषों की परीक्षा करना विहज्जन का कतंव्य है। वेसे लेखक ने ग्रन्थ को अधिक प्रोमाणिक और शुद्ध तथा सुबोध बनाने के अनेक प्रयास किये हैं, तथापि मानव मानव ही है, उससे भूल नहीं हुई होगी, यह दावा नहीं किया जा सकता। अतः ऐसी जो त्रुटियाँ रह गई हों उनके लिए क्षमा ही देने की कृपा कर । जो विद्रज्जन इस ग्रन्थ को और अधिक सुन्दर बनाने के उचित प्रस्ताव दंगे उनको इसके द्वितीय संस्करण में ठीक स्थान देने पर विचार किया जा सकेगा ।




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