संस्कृत - काव्यशास्त्र में निरूपित विरोधमूलक अलङ्कारों का आलोचनात्मक अध्ययन | Sanskrit-Kavyashashtra Mein Virodhmoolya Alkdaaron Ka Aalochnatmak Adhyyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अब निष्कर्ष रूप में यह कहा ना सक्ता है শক তাভাত मैं करण-त्सृत्पतत्ति ते नौ अलङ्ु 7र शल्द का अर्थं ¶नकलता है #क अल्ह्ु-7र कात्य कौ अलह्‌*कृत ल्नानै का ताधन है ठीक ही है, परन्तु यीद ওজন कौ कात्य कौौ अलद्‌*ृत करने का साधन मान बलिया जाय तो हमारे समक्ष यह प्रपरन उठना स्वाभाव दही है कि वे अलड्डन्यर पिनन्‍्हें हम काव्य को अत गर बनाने का साधन मानते हैं वे कात्य त अल्‌ कत भक्ते करते है ग আন্ত“ काव्य म ¶क्ते अतरह-छत करते है यह जानने पूर्वं हमारे শীষ यह जान लैना आवश्यक है वीक वास्तव मैं अलड्ढ पर क्या है? और अलड्डर्य क्या है? नौ अन्य को तृभोभ्ति करे उत्ते अहड्ड गर कहते हैं और णी अन्य के द्वारा पथो ¶भत हौ তত অনু শর্য कहा नाता है। उदाहरणार्थ- कटक, कुंडल রাহি आभघण अन्यौ को ¶तश्रीषत करते हैं इस कारण ते अलड्ड-गर कहे जायेंगे और मनुष्य का शरीर णौ ¶क इन आथधर्णीः के त्रा अबूह*कृत होता है इसीलए মন্ত্র के शरीर कौ अलङ्क र्य कहा नार्गा। अतः अलङ्घ्य का अतङ्क करण अलहकु-7र के तारा होता है। इसी प्रकार काव्य मैं जब्ब उपमादि अलड्ड नगर आब्दार्थ को শীর্ণ ই तो उन्हें अलड्ड'1र की संक़ा प्राप्त होगी, परन्तु णब् त्यदु* ग्यार्थ मैं उसकी स्पष्टत: प्रतीत होगी तो अलड्ड र्य की सीमा में आ जायेंगे। कहने का अभिम्राय यह है 'क च्यडुन्य थर्थ मैं प्रधान रूप ते अहड्डू 1राँ की प्रतीतत होने ते वे अलड्ड गर अलड्डु र्य हो जाते ক = यद पर यह प्रइ्नन उठना स्वाभाविक রী ই শক তালার শী थो अहड्ढ 1र,/ कैतवे हौ सक्ता है? अलड्डु गर का तो यह गुण ই শক वह दूसरे को पृश्जीभित करें। रेसी रैस्थीत मेँ वे अलह्ुगर गौड़ होते हैं,




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