साहित्यानुशीलन | Sahityanusheelan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
299
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साहित्य की परख ७
शुक्ल जी के प्रनुगामी, परण्डित्य का इतना विशाल घटाहोप खड़ा करने मे
अपने को ग्रसभर्थ पाकर श्रौर यह देखकर कि प्राद्ीन श्राचार्मो में शबइ-शक्ति, रत,
रीति, अलंकार के भेदोपभेदों की संख्या पहले ही समाप्त करदी है, कभी शुक्ल जी के
ही तको कौ श्रादृत्ति करते हैं, कभी आधुनिक रचनाओं में इन भेदोपभेदों के वृष्दाम्त
सूचित करके भुल्याकद के 5इन ले छुट्टी पा लेते हैं, तो कभी साहित्य के आधुनिक
कू प-विधानों-- जैसे उपभ्यास, कहानी और गीति-काव्य का क्षेत्र सपाट पाकर उन्हें
भी कोष्टबद्ध करने लगते है | अर्थात उनका वर्गीकरण करने में संलग्न हो जाते हे ।
डा० श्रीकृष्णलाल की आधत्तिक हिन्दी-साहित्य का विकार्सा साम की पुस्तक इस
प्रवृत्ति का साधारण उदाहरण है } उन्होंने गीति-काब्य के पॉस भेद किये हु---व्यंग्प-
गीति, पत्र-गीत्ति, शोक-गोत्ति, वयं भवना से प्रेरित णीति और अ्रध्यान्तरित-गीति,
সী फिर इनके भी उपभेद कर डाले ই । इसौ प्रकार उपन्यासो के भी एक दजन भेद
आपको यहों भिवेगे ! ट त्य्क सयो रना श्रपनी शेलीगत विशेषता के कारण इन
अध्यापकों को एक नये भेद का खाना खोलने के लिए विवश कर देती है | फिर भो,
कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक, तिबन्ध आदि के तीन মা লহ भेद होते हे--उसके
इस “होते हः के निश्ष्वथात्मक स्वर में ्ि.थतता ˆ नही श्राती ॥ साहित्य के ग्रभ्भीर
मर्मज्ञ पण्डित विश्वत्ताथ प्रसाद सिश्र और यदाकदः मनोविज्ञान से प्रेरणा लेने वाले
डॉ० रामक्रुमार सभ तक इ मनोवत्ति से छुटकारा नहीं पा स्के है ।
साहित्यालोचन की दूसरी विचारधारा आधुतिक सनोविज्ञाल--वस्तुनः
फ़ॉयड-एडलर-पुग फे सनोपिश्लेबण-जास्त्र से प्रभावित है । अज्नेय/ और इलाचनद
जोशी, इस प्रसद्भ में केवल थे दो नाम ही उल्लेखनीय है। दोनों उपस्यासकार, कवि,
श्रौर श्रालोचकं है। इसमें सन्देह नहीं कि अज्ञेय' नें अपने निबन्धो मे कला के मूल्यांकन
के प्रइन पूरी मश्भीरता के साथ उठाया है। और जो लोग सनोविज्ञान की आधुनिक
प्रवृत्तियों से श्रनभिक्ञ हैः उम्हँ इन निब्नन्धों भें नये सिद्धान्तं का प्रतिपादन मी
मिलेगा। भूल्यांकन करते समय कला-सुजन में নিত জী अवधेतन का श्रौर
सभाज कौ परिस्थिति या परिवृत्ति का क्या महत्व ह, इन प्रदनों का सिर्देश करके
उन्होंने कला-साहित्य विषयक रूढ धारणाश्रों को नयी श्रत्तदृष्टि दीह परन्तु
इन तत्त्वो को उन्होने जो व्याख्या फौ ह वहू श्रत्यन्त एकां श्रौ र यन्वत् ह । वैसे
उनके समच दष्टिकोर में एक श्रस्तिरिकः दिसंगति है जो एके स्नभ्वित दृष्टिकोण
के ध्रभाव की सूचक हैं ।* एक श्रोर वे कलाकार ओर प्रतिभा-सम्पन्त व्यक्ति को
ऐसा 'विद्नोहसरत्वाँ मानते है जो पुरानी लीक पर न चलकर झपनी नयी लीक बनाता
है, अपने व्यक्षितत्व की पूर्ण स्वीकृति पाने के लिए अपनी परम्परा स्वयं गढ़ता है;
१. देखिय 'अ्रज्ञेय का निवन्ध-सग्रह “त्रिंशकः ।
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