राजशास्त्र के मूल सिद्धान्त अध्याय १ | Rajshastra Ke Mool Siddhant Adhyay -1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
50 MB
कुल पष्ठ :
379
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वषय-प्रवश ধু
सामाजिक सगंठनो को स्थापित करना तथा, कलुषित सामाजिक सगंठनों को, ,
जिन से समाज का पतन हो, नष्ट करना राज्यका कर्तव्य ৪ । इन बातोंसे
पता चलता हे कि राजशास्श का समाजशास्व से कितना घनिष्ट संबंध हे ।
राजज्ञासत्र और आचारशास्त्र (51108 ])--श्राचारश्ास्त्र में हम इस
बात का ग्रध्ययन करत हूं कि बुराई क्या है? ओर भलाई क्या है ? मनुष्य
को बुराइयों से बचना चाहिये; भले कार्य करने चाहिये | मनुष्य को ईश्वर
से डरकर अनुचित कार्य नहीं करने चाहिये । ग्रात्मोन्नति के कार्य करने
चाहिये । इन सब बातों पर विचार करते हुए हमको पता चलता है कि इनमें
से कितनी बातों का सम्बन्ध राजशास्त्र से है। मनुष्य के जीवन में कार्य करने
के दो पाइवे हें---एक व्यक्तिगत दूसरा सामाजिक | ऊपर लिखी बातों का
जहाँ तक मनृष्य का व्यक्तिगत सम्बन्ध है वहाँ तक राजशास् का इन बातों
से कोई संबंध नहीं है, परन्तु जहाँ मनुष्य का समाज से- संबंध है वहाँ ऊपर
लिखी सब बातें राजशास्त्र से संबंध रखती हें। राज्य का यह कतंव्य है कि
समाज को बुराई श्रौर भलाई का भेद बताये । बुरी बातों के लिये राज्य
दंड देता हैं । यदि कोई मनुष्य अपने घर के भीतर जुआ्मा खेलता, शराब पीता
तथा श्रन्य इस प्रकार की बुराई करता है तो वह उसका व्यक्तिगत विषय
हो जाता हं । परन्तु जव मनुष्य ्रपने घर के बाहर किसी सार्वजनिक स्थान
अथवा मार्ग पर इस प्रकार के कार्प करता है तो वह राज्य की विधि (क्रानून)
के श्रन्तगंत दंड का भागी हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य अपने घर;
मंदिर मस्जिद, गिरजा श्रादि में किसी प्रकार की धामिक बातें कर सकता
है श्रौर वह् उसका व्यक्तिगत विषय सममा जायगा । परन्तु जब वही मनुष्य
अपने धर्म के अनुसार किसी जन साधारण के स्थान, मार्ग प्रथवा किसी दूसरे
धर्म के पूजा अथवा प्रार्थना-स्थान पर कोई ऐसा कार्य करता है जो दूसरों को
घ॒रित प्रतीत हो तो वह राज्यविधि के अन्तर्गत दंड का भागी हो जाता है ।
राज्य का यह उद्देश्य होना चाहिये कि जिस प्रकार हो सके मनुष्यों के आचार
की उन्नति करे, जनता को सदाचारी बनाये । सब श्रेष्ठ राज्यों मं इन बातों
की ओर ध्यान दिया जाता है। इन बातों से प्रकट' होता है कि राजशास्त्र
का आचारशास्त्र से कितना घनिष्ट संबंध है। प्लैटो का मत हैं कि “राज्य
को चाहिये कि मनुष्यों को सदाचार की शिक्षा दे” वह राजशास्त्र और
श्राचारशास्त्र को पृथक् पृथक् नहीं समझता था। उसके लिये यह दोनों
दास्त्र एक ही थे । उसके शिष्य अरस्तू ने राजशास्त्र और आचारशास्त्र
को पृथक् पृथक् समभा । परन्तु वह॒ इन दोनों का घनिष्ट संबंध
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