जुदाई की शाम का गीत | Judai Ki Sham Ka Geet

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Judai Ki Sham Ka Geet by उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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খু जुदाई की शाम का गीत और चाँद फिर पीला पड़ गया था | मैं उन भिखारियो के पास से गुजरा (। किसी दूरस्थ प्रदेश से पैदल घले आनेवाले, थक-हारकर सूखी घरती ही को बिस्तर बना लनेवाले, आन्त-क्लान्त पथिकों की भाँति वे एक दूसरे से सटे हुए पड़े थे। नौजवान मिखारिन अभी बैठी थी और बद्धा ने.किर योगं पसार ली थीं। एक अज्ञात प्रेरणा के अधीन मैंने पूछा, “तुम में से किसी ने बीड़ी भोगी थी 1 एक साथ ही तीन-चार भूखी निगाहें मेरी ओर उठीं--“हाँ?” और फिर उन्होंने कहा, “इस बुढ़िया को चाहिए !?---शायद वे उस बुढ़िया का नाम लेकर मेरी हमदर्दी को बढ़ाना चाहती थीं, नहीं यों बीड़ी की हसरत मेंने उन सब की आवाज़ो में महसूस की | मैंने कहा, “मेरे साथ आओ ! एक बन्डल ले दूँ |; ओर वह बुढ़िया उठी। धुएँ से छुनकर आती हुईं चॉद और बिजली के अ्रए्डों की रोशनी में मैंने देखा-- उसकी उम्र ज्यादह न थी.। करद मी लम्बा था। लेकिन वक्त श्रौर श्रावारगी ने उसके चेहरे पर बेशुमार लकीरें बना दी थी। और उसके कन्धोंको मी शुका दिया था। मैंने अपनी तरग में पूछा, “ठुमने कभी बढ़िया सिगरेट पिया है १?” “हमें कभी सिगरेट नहीं मिला बाबूजी, हम तो बीड़ी. . .?” मने पनवाड़ी से कहा, “क्रेवन-ए, की एक डिबिया बुढ़िया को ददो) जी वह तो मेरे पास नहीं | “अच्छा तुम्हारे पास जो बढ़िया सिगरेट है उसकी एक डिबिया इस बुढ़िया को दो ।? और बुढ़िया से मेंने कहा, “देख रे माई एक-एक सिगरेट सबको बांट देना । बेच न देना । में देख रहा हूँ !” “जी नहीं !” और वुद्धा चली गयी ।




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