उर्दूके अदीब | Urduke Adeeb

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Urduke Adeeb by श्रीपाद जोशी - Shreepaad Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किया गया है । और शायद अिसी लिये हिन्दी साहित्यके अतिहासमें खुसरो কী ক্সিবনা र्चा स्थान प्राप्त हुआ है। अमर प्रेम-काव्य पद्मावत के लेखक मलिक महम्मद जायसीने भी 'हिन्दुओ” शब्द ही बरता है | मल्कु- श्शुअरा ( कविवर ) सौदाके अस्ताद शाह हातिमने भी ( स० १७५० ओ. ) असी शब्दको श्रिस्तेमाल किया है। “आतिश' बाकर' “आगाह” 'जुरअत” वगैरह शायरोंने भी झिस लफ्ज़्को अपनाया है। अतना ही नहीं बल्कि अदे के अस नये जूमानेके अस्ताद सैयद अन्शा अल्लाखेंने अपनी मशहूर किताब दरियाओ लताफृत' में कओ जगह “हिन्दी” लफ्ज़का श्रिस्तेमाल अदे! के मानीमें किया है । मगर ससे मे यह नहीं समना चाहिये कि तब तक अझदू” लफ्ज्ञका रिवाज कहीं था ही नहीं । ओसी बात नहीं है। तुर्की ज़बानमें लश्करके बाज़ारको अदू कहते हैं । असलामी सल्तनतके जमनम मगल, पठान, तुकं अफूगान वगैरह विदेसी सिपाही शाही फौज़ोंमें नौकरी करते थे । अस वक्‍त लश्कर के बाज्ञारोंमें लेन-देन, ख़रीद-फ्रोख्तकी ग़रज़से अन्हें खालिस अरबी, फारसी या तुर्कीको छोडकर शरक श्रेसी जबानसे काम लेना पडता था जिसे यहाँके दूकानदार आसानीसे समझ सकें । हम जरासी कोशिश करें तो कल्पना कर सकते हँ करि अस वक्त श्रिस जृबानकी शक्ल-सूरत कैसी होगी ४ असकी क्रया. कारक, सर्वनाम, लिंग, वचन, विभक्ति, अन्यय वगैरह सग्के सब न फारसीके होंगे न हिन्दी के । असमें अरबी, फारसी, तुर्की वगेरह जबानोंके लफ्जोंकी भरमार होना कितना कुद्रती था । थशसी जुबानको बादमें शद कदा गया । चूँकि अस जुबानमें अलग अलग भाषाओंके लफ्ज़ बिखरे हुओ पड़े थे असलिये असे 'रेख्ता' भी कहते थे । ( असकी श्रेक दूसरी सूरत 'रेख्ती! कहलायी जो खासकर औरतोंकी बॉलचालकी ज़बान है।) लेकिन रेख्तासे अक्सर मतलब अदूँ शायरी” से हुआ करता है न कि नस्न ( गद्य ) से। च्व की श्रदबी सूरतः-- शाही दरबारोमे जो शायर ये वह पहले पहल सिफ फ़ारसीमें अपने कनमके जौहर दिखलाया करते थे । श्रिसकी वजह साफ़ साफ़ यह थी कि बादशाह और श्रमीर व वजीर यदांकी किसी देशी भाषासे बहुत कम वाक्रिफ़ 1२




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