महात्मा हंसराज | Mahatma Hansraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ मतभेद, त्रह्मचय का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना वा बाल्या- बस्था में अस्वयम्बर विवाह, विषयासक्कि,मिथ्या भाषण आदि कुल- क्षण, वेद-विद्या का अप्रचार आदि छुकम हैं । जब आपस में भाई भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है ।” महिं ने ममं स्पशीं शर्ब्दो मे लिखा, ^ . क्या तुम लोग महाभारत की बाते, जो पांच हजार वषं के पहले हुई थीं, उनको भूल गये ? देखो, महाभारत युद्धम आपस की फूट से कौरव, पाण्डव चर यादवों का सत्यानाश हो गया परन्तु, अब तक भी वही रोग पीछे लगा है । न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा या आरयों को सब सुखों से छुड़ा कर दुख सागर में डवा मारैगा ? उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्र हत्यारे, स्वदेश-विनाशक नीच के दुष्ट मार्ग में आये लोग अब तक मी चलकर दुख बढा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करे कि यह राज रोग हम आयों में से नष्ट हो जाय !” संत्षिप्त शब्दों में महर्षि ने भारतीय दासता का स्पष्ट चित्र अंकित कर दिया है। घोर अज्ञानता मे घिरा हमारा देश जात- पात और घर-बिरादरियों के नाम से अनेकों टुकड़ों में बटा, हर टुकड़ा एक-दूसरे का बैरी हो रहा था। एक दो नही, तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के प्रादुभाव के बाद हर नदी-नाला, हर पशु-पकती, हर पत्थर-कंकर, हर ज्वर-रोग की पूजा-अचना शुरू हो गई थी। समाज की छुरीतियां रूढ़िवाद के संसगं से घुन बन हमारी नींबों को खोखला कर रही थीं । जलती मोमबत्ती का यह एक सिरा था। दूसरी ओर से हमारे देश को कुछ विधर्मी जला रहे थे। मौलबियों और पादरियों के कुत्सित प्रचार से हमारी दासता की कड़ियां और भी मज़बूत होने




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