बुंदेलखंड के दुर्गो की स्थापत्यकला का सैन्य इतिहास पर प्रभाव | Bundelkhand Ke Durgo Ki Sthapatykala Ka Sainya Itihas Par Prabhav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
173 MB
कुल पष्ठ :
275
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आधुनिकवाद ओर भौतिकवाद के कारण ये दुर्ग ओर गढियां आज उपेक्षा की शिकार है । इ
तेहासकारो
एवं सेन्यशास्त्रियों कं पास प्रमाणित सहित्य न होने के कारण आज भारतीय संस्कृति की धरोहर
नगण्यता एवं तुक्षता के शिकार बन चुके हैं।
भारतवर्ष को इतिहास की दृष्टि से विभिन्न प्रान्तों में बांटा है जिसका कि
सम्बन्ध प्राचीन मध्यकालीन इतिहास से है। बुन्देलखण्ड के दो दुर्ग जिनका सम्बन्ध मेरे शोधकार्य से
हे असी एवं कालिंजर का किला मध्यकालीन किले की श्रेणी में आते हैं।
झाँसी एवं कालिंजर के दुर्ग भी इसी परम्परा में एक महत्वृपर्णं स्थान रखते
हैं। इनका निर्माण यहां के तत्कालीन शासकों द्वारा पड़ोसी राजाओं के आक्रमण से सुरक्षा को दृष्टिमेव
रखकर किया गया था इनका निर्माण स्थापत्यकला ओर सैन्य रूपरेखा की दृष्टि से किया गया था
जिससे कि वाहरी आक्रमणों को रोका जा सके |
झाँसी व कालिंजर दुर्ग की स्थापत्यकला और सुरक्षा व्यवस्था भारत के
अन्य दुर्गों के समान थी। यह दोनों दुर्ग अपनी कहानी क्विंदन्तियों, ऐतिहासिक जनश्रुतियों के लिये
प्रसिद्ध हैं। इन दुर्गों में सजावट पर विशेष ध्यान दिया गया। कालिंजर और झाँसी दुर्ग की अपनी एक
ऐतिहासिक जनश्रुति और बहुत से ऐतिहासिक तथ्य हैं ।
बुन्देलखण्ड में ऐसे तो बहुत से दुर्ग एवं गढ़ियां हैं परन्तु शोध की दृष्टि से
झाँसी एवं कालिंजर दुर्ग का सैन्य इतिहास अन्य दुर्गो से भिन्न हे।
“ 1485 में राजा भीमसेन के निःसन्तान मरने पर कालिंजर के स्वामी उनके
मतीजे रुद्रप्रताप कालिंजर के महाराजाधिराज बन गये । 1486 मे जब उन्होने कालिंजर प्रशस्ति
लिखवाईं तो स्वाभाविक रूप से उन्हे महाराजाधिराज कहा गया । 1501 से मलखान की मृत्यु के पश्चात
वे ओरछा के भी राजा हो गये | रुद्रप्रताप एक महत्वाकांक्षी सम्राट था | उन्होने राजनैतिक स्थिति का
लाभ उठाते हुये अपने साम्राज्य का विकास किया। उनकी महात्वाकांक्षा को दबाने के लिये ही हुमायूं
রা लौट 1
न 1530-31 मे कालिंजर पर आक्रमण किया पर असफल होकर लौट गया!“
শর
1. दैनिक समाचार पत्र 'राष्ट्रवोध' शुक्रवार 28 मई, 2004, पेज सं0 12 प्रकाशन- ।
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