आधुनिक ब्रंज भाषा-काव्य | Adhunik Braj Bhasha-Kavya

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Adhunik Braj Bhasha-Kavya by शुकदेवबिहारी मिश्र - Shukdevbihari Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) -रजबाड़ी, प्रयोग पाये जाते दै । बिजावर के राज-कवि बिहारी”, सीतामऊ- नरेश, फालाषाड-नरेश, र्वो के रामाधीन श्रादि की भाषा में इसके उदाहरण श्रधिक मिलते है । स्वृतन्त्र कबि--इनमें दो मुख्य दल हैं। एक दल লী रत्नाकरः रसाल', डाक्टर त्रिपाठी, श्रीधरपाठक आदि नजीन-शित्ष। ६ सुकवियों का है, जिसकी भाषा साहित्यिक सोष्टब-समन्वित श्रोर समुस्कृष्ट रहती हैं “दूसरा दल उन सुकवियों का हैं जो नवशिक्षा-दीक्षा-दीक्षित न होकर प्राचीन पंडिताऊ पद्धति से पढ़े ओर कढ़े हुए हैं | श्सलिए इस दल के कवियों की भाषा बहुत कुछ प्राचीन-शैली के ही साँचे में टली सी रह्दती हैं| इम दोनों दलों के बीच में एक कवि-दल ऐसा भी है जिषमे दोन दलों की विशेषताएं आंशिक रूप में मिलती हैं । व्रजभाषा-ल्षेत्र में किसी श्रच्छे व्याकरण के न होने से प्रायः क्रियाश्रों 'ओर कारकों के रूपों ओर प्रयोगों में बहुत-कुछ गड़बड़ी मिलती है। क्रियाश्रों में अनिश्चित बहुरूपता विशेष रुप से देखी जात॑ है । उदाह- বাধ “ইলা? क्रिया ऊ सामान्यमूत काल मे दन्द्यो, दीन्‍्हों, दयों, তলা दिया आदि रूप स्वतन्त्रता से चल रहे हैं। ऐसी स्वच्छुन्दवा श्रौर श्रनि श्चित बहुरूपता रत्नाकर' आदि सुकवियों की भाषाश्रों में नहीं मिलती । इसी प्रकार कारकों के श्रयोगों में भी बड़ी श्रव्यवस्था सी फेली हुई है कर्तों का ने! चिह, जिसका प्रयोग प्रायः शुद्ध साहित्यिक-अजभापा में कदापि नहीं होता श्रव प्रायः स्वच्छुन्दता से प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार में के को, तृतीया के 'सों', चतुर्थ के 'कों? षष्टी के 'कौ? ओर अधि- करण के भें! के स्थानों पर कवि लोग खड़ी बोली के प्रचलित रूप इच्छानुसार प्रयुक्त करते हैं । व्याकरण व्यवस्था के लिए, (रत्नाकर! जैसे सकवियों का कार्य वस्तुत सराहनीय है। इसी के साथ ही संस्कृत और फारसी आदि के शब्दों क तजभाषा-पद्धति केअनुसार देशन रूप न देकर उनके तत्सम या मूल इुपों में ही धयुक्त करने की अभिरुचि प्रायः कवियों मे देखी जाती है




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