भक्ति योग | Bhakti Yog

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Bhakti Yog by स्वामी विवेकानन्द - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मङ्कि के रूण १३. क लिये पुच्छ-सरूय योग है ! जो लोग इन सीन सून अणा- लियों का एक साथ अनुष्ठान नहीं कर सकते रौर एकंमाच भक्ति-पथ का अवलम्वन करते हैं, न्दं यदह सदैव स्मरण रदे कि वाह्म-अनुष्ठान और क्रिया-कलाप ( यद्यपि प्रथम अवस्था के साधको क लिये अत्यन्तावश्यक है ) की उपयोगिता ईश्वर के प्रति अगाढ-प्रेम उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ज्ञानमाग और भक्तिमार्ग के उपदेशकों में कुछ सामान्य मतभेद है, यदपि दोनों दी भक्ति के प्रभाव को स्वीकृत करते हैं । ज्ञानी भक्ति को मुक्ति का उपाय मात्र मानते द; परन्तु भक्त- गणों छो इसमे उपाय तया उदेश्य दोनों दी सम्मिलित मिलते है । हमारी सम में यदह अन्तर नाममात्र दी को है) भत पत्त मे, भक्ति को केवल साधन स्वरूप मानने से वह निन्नस्तल की उपासना दी दो जाती हैं और यदी निश्नस्तल की उपासना आगे चलकर उच्स्तल भक्ति मे मेद भाव से परिएत होती दै ) सभी लोग अपनी-अपनी साधना प्रणाली की तारीफ़ करते हैं। पर वे नहीं जानते कि पूणं भक्तिसे अयाचित भी ज्ञान आप्ति होती है तथा पूर्ण ज्ञान में अकृत भक्ति अमेद भावेन सम्मिश्रित दै। यह सिद्धान्त सममकर तथा ध्यान धस्कर आओ देखें कि इस विषय मै बड़े-बढ़े वेदान्त भाष्यकारों ने क्या कहा है ? भगवान शह्क॒राचाये ने “आवृत्तिस्सकृहुपदेशात्‌” सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि “लोग कहते हें--अमुक व्यक्ति शुरु-भक्त दे, अमुकं व्यक्ति राज-भक्त है।” यह उन्हीं के लिये कहा जाता




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